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Monday, November 02, 2015

मानसिक रोग से मुक्ति के लिए उपचार -

तनाव भरी जिन्दगी ,काम की भागदौड ,घरेलू झगडे ,इसका आपके मस्तिष्क पे बुरा प्रभाव पड़ता है जिससे स्मरण-शक्ति का हास होना स्वाभाविक है और धीरे-धीरे समयानुसार आत्मविश्वास में कमी होने लगती है -



इन सभी कमियों को दूर करना भी आवश्यक है वर्ना कुछ समय बाद आपको भूलने जैसी बीमारी से दो-चार होना पड़ता है इस प्रकार का व्यक्ति क्रोध ,बैचेनी,सिरदर्द ,आत्म-ग्लानी का भी शिकार हो जाता है -

आप सभी के लिए एक नुस्खा है जिसे प्रयोग करके अपने मस्तिष्क को शक्तिशाली बनाए -


सामग्री :-


शंखपुष्पी - 100 ग्राम

ब्राह्मी     - 100 ग्राम

गिलोय    - 100 ग्राम

आंवला    - 100 ग्राम (सूखा हुआ )

जटामासी - 100 ग्राम (सभी सामग्री आयुर्वेद जड़ी-बूटी विक्रेता से आसानी से प्राप्त )


प्रयोग विधि:- 


उपरोक्त सभी सामग्री को महीन कूट-पीस करछान कर एक एयर टाईट कांच के बर्तन में रख ले और प्रतिदिन इसकी एक-एक चम्मच मात्रा शहद ,या जल , या आंवले के शरबत के साथ दिन में तीन बार ले तथा बच्चो को इसकी मात्रा आधा चम्मच दे - गर्भवती महिला यदि गर्भ-काल में नियमित सेवन करती है तो होने वाला बच्चा हर प्रकार से स्वस्थ और मानसिक रोगों मुक्त रहता है- वृद्ध भी इसका सेवन कर सकते है - ये पूर्ण रूप से सुरक्षित प्रयोग है -

उपचार और प्रयोग-

Saturday, October 31, 2015

कलौंजी भी क्या हर मर्ज की दवाई है -

प्रक्रति ने हमें जीवन में वो सब कुछ दिया है जो वरदान स्वरूप है तभी तो किसी ने ये कहा है-क्या खूब ये कलौंजी बनाई है-जो मौत के सिवा हर मर्ज की दवाई है-कलौंजी (Nigella) एक वार्षिक पादप है जिसके बीज औषधि एवं मसाले के रूप में प्रयुक्त होते हैं-




अलग-अलग भाषा में इसके नाम :-



संस्कृत-कृष्णजीरा

उर्दू - كلونجى कलौंजी

बांग्ला - कालाजीरो

मलयालम - करीम जीराकम

रूसी - चेरनुक्षा

तुर्की -çörek otu कोरेक ओतु

फारसी - शोनीज

अरबी- हब्बत-उल-सौदा, हब्बा-अल-बराकाحبه البركة,

तमिल - करून जीरागम

तेलुगु - नल्ला जीरा कारा



इसका स्वाद हल्का कड़वा व तीखा और गंध तेज होती है। इसका प्रयोग विभिन्न व्यंजनों नान, ब्रेड, केक और आचारों में किया जाता है। चाहे बंगाली नान हो या पेशावरी खुब्जा (ब्रेड नान) या कश्मीरी पुलाव हो कलौंजी के बीजों से जरूर सजाये जाते हैं-


कलौंजी में पोषक तत्व :-


इसमें 35% कार्बोहाइड्रेट, 21% प्रोटीन और 35-38% वसा होते है। इसमें 100 ज्यादा महत्वपूर्ण पोषक तत्व होते हैं। इसमें आवश्यक वसीय अम्ल 58% ओमेगा-6 (लिनोलिक अम्ल), 0.2% ओमेगा-3 (एल्फा- लिनोलेनिक अम्ल) और 24% ओमेगा-9 (मूफा) होते हैं। इसमें 1.5% जादुई उड़नशील तेल होते है जिनमें मुख्य निजेलोन, थाइमोक्विनोन, साइमीन, कार्बोनी, लिमोनीन आदि हैं। निजेलोन में एन्टी-हिस्टेमीन गुण हैं, यह श्वास नली की मांस पेशियों को ढीला करती है, प्रतिरक्षा प्रणाली मजबूत करती है और खांसी, दमा, ब्रोंकाइटिस आदि को ठीक करती है-


थाइमोक्विनोन बढ़िया एंटी-आक्सीडेंट है, कैंसर रोधी, कीटाणु रोधी, फंगस रोधी है, यकृत का रक्षक है और असंतुलित प्रतिरक्षा प्रणाली को दुरूस्त करता है। तकनीकी भाषा में कहें तो इसका असर इम्यूनोमोड्यूलेट्री है। कलौंजी में केरोटीन, विटामिन ए, बी-1, बी-2, नायसिन व सी और केल्शियम, पोटेशियम, लोहा, मेग्नीशियम, सेलेनियम व जिंक आदि खनिज होते हैं। कलौंजी में 15 अमीनो अम्ल होते हैं जिनमें 8 आवश्यक अमाइनो एसिड हैं। ये प्रोटीन के घटक होते हैँ और प्रोटीन का निर्माण करते हैं। ये कोशिकाओं का निर्माण व मरम्मत करते हैं। शरीर में कुल 20 अमाइनो एसिड होते हैं जिनमें से आवश्यक 9 शरीर में नहीं बन सकते अतः हमें इनको भोजन द्वारा ही ग्रहण करना होता है। अमाइनो एसिड्स मांस पेशियों, मस्तिष्क और केंन्द्रीय तंत्रिका तंत्र के लिए ऊर्जा का स्रोत हैं, एंटीबॉडीज का निर्माण कर रक्षा प्रणाली को पुख्ता करते है और कार्बनिक अम्लों व शर्करा के चयापचय में सहायक होते हैं-


कैंसर में उपचार:-



जेफरसन फिलाडेल्फिया स्थित किमेल कैंसर संस्थान के शोधकर्ताओं ने चूहों पर प्रयोग कर निष्कर्ष निकाला है कि कलौंजी में विद्यमान थाइमोक्विनोन अग्नाशय कैंसर की कोशिकाओं के विकास को बाधित करता है और उन्हें नष्ट करता है। शोध की आरंभिक अवस्था में ही शोधकर्ता मानते है कि शल्यक्रिया या विकिरण चिकित्सा करवा चुके कैंसर के रोगियों में पुनः कैंसर फैलने से बचने के लिए कलौंजी का उपयोग महत्वपूर्ण होगा। थाइमोक्विनोन इंटरफेरोन की संख्या में वृध्दि करता है, कोशिकाओं को नष्ट करने वाले विषाणुओं से स्वस्थ कोशिकाओं की रक्षा करता है, कैंसर कोशिकाओं का सफाया करता है और एंटी-बॉडीज का निर्माण करने वाले बी कोशिकाओं की संख्या बढ़ाता है-


कीटाणुरोधी गतिविधि:-




कलौंजी का सबसे ज्यादा कीटाणुरोधी प्रभाव सालमोनेला टाइफी, स्यूडोमोनास एरूजिनोसा, स्टेफाइलोकोकस ऑरियस, एस. पाइरोजन, एस. विरिडेन्स, वाइब्रियो कोलेराइ, शिगेला, ई. कोलाई आदि कीटाणुओं पर होती है। यह ग्राम-नेगेटिव और ग्राम-पोजिटिव दोनों ही तरह के कीटाणुओं पर वार करती है। विभिन्न प्रयोगशालाओं में इसकी कीटाणुरोधी क्षमता ऐंपिसिलिन के बराबर आंकी गई। यह फंगस रोधी भी होती है।


कलौंजी में मुख्य तत्व थाइमोक्विनोन होता है। विभिन्न भेषज प्रयोगशालाओं ने चूहों पर प्रयोग करके यह निष्कर्ष निकाला है कि थाइमोक्विनोन टर्ट-ब्यूटाइल हाइड्रोपरोक्साइड के दुष्प्रभावों से यकृत की कोशिकाओं की रक्षा करता है और यकृत में एस.जी.ओ.टी व एस.जी.पी.टी. के स्राव को कम करता है।


मधुमेह प्रयोग :-



कई शोधकर्ताओं ने वर्षों की शोध के बाद यह निष्कर्ष निकाला है कि कलौंजी में उपस्थित उड़नशील तेल रक्त में शर्करा की मात्रा कम करते हैं-


शोथ(सुजन ) पे प्रयोग :-



कलौंजी दमा, अस्थिसंधि शोथ आदि रोगों में शोथ (इन्फ्लेमेशन) दूर करती है। कलौंजी में थाइमोक्विनोन और निजेलोन नामक उड़नशील तेल श्वेत रक्त कणों में शोथ कारक आइकोसेनोयड्स के निर्माण में अवरोध पैदा करते हैं, सूजन कम करते हैं ओर दर्द निवारण करते हैं। कलौंजी में विद्यमान निजेलोन मास्ट कोशिकाओं में हिस्टेमीन का स्राव कम करती है, श्वास नली की मांस पेशियों को ढीला कर दमा के रोगी को राहत देती हैं-


आंत्र कृमि:-



शोधकर्ता कलौंजी को पेट के कीड़ो (जैसे टेप कृमि आदि) के उपचार में पिपरेजीन दवा के समकक्ष मानते हैं। पेट के कीड़ो को मारने के लिए आधी छोटी चम्मच कलौंजी के तेल को एक बड़ी चम्मच सिरके के साथ दस दिन तक दिन में तीन बार पिलाते हैं। मीठे से परहेज जरूरी है-


एच.आई.वी. :-



मिस्र के वैज्ञानिक डॉ. अहमद अल-कागी ने कलौंजी पर अमेरीका जाकर बहुत शोध कार्य किया, कलौंजी के इतिहास को जानने के लिए उन्होंने इस्लाम के सारे ग्रंथों का अध्ययन किया। उन्होंने माना कि कलौंजी, जो मौत के सिवा हर मर्ज को ठीक करती है, का बीमारियों से लड़ने के लिए अल्ला ताला द्वारा हमें दी गई प्रति रक्षा प्रणाली से गहरा नाता होना चाहिये। उन्होंने एड्स के रोगियों पर इस बीज और हमारी प्रति रक्षा प्रणाली के संबन्धों का अध्ययन करने के लिए प्रयोग किये। उन्होंने सिद्ध किया कि एड्स के रोगी को नियमित कलौंजी, लहसुन और शहद के केप्स्यूल (जिन्हें वे कोनीगार कहते थे) देने से शरीर की रक्षा करने वाली टी-4 और टी-8 लिंफेटिक कोशिकाओं की संख्या में आश्चर्यजनक रूप से वृध्दि होती है। अमेरीकी संस्थाओं ने उन्हें सीमित मात्रा में यह दवा बनाने की अनुमति दे दी थी-


कलौंजी-एक रामबाण दवा:-



मिस्र, जोर्डन, जर्मनी, अमेरीका, भारत, पाकिस्तान आदि देशों के 200 से ज्यादा विश्वविद्यालयों में 1959 के बाद कलौंजी पर बहुत शोध कार्य हुआ है। 1996 में अमेरीका की एफ.डी.ए. ने कैंसर के उपचार, घातक कैंसर रोधी दवाओं के दुष्प्रभावों के उपचार और शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली सुदृढ़ करने के लिए कलौंजी से बनी दवा को पेटेंट पारित किया था। कलौंजी दुग्ध वर्धक और मूत्र वर्धक होती है। कलौंजी जुकाम ठीक करती है और कलौंजी का तेल गंजापन भी दूर करता है। कलौंजी के नियमित सेवन से पागल कुत्ते के काटे जाने पर भी लाभ होता है। लकवा, माइग्रेन, खांसी, बुखार, फेशियल पाल्सी के इलाज में यह फायदा पहुंचाती हैं। दूध के साथ लेने पर यह पीलिया में लाभदायक पाई गई है। यह बवासीर, पाइल्स, मोतिया बिंद की आरंभिक अवस्था, कान के दर्द व सफेद दाग में भी फायदेमंद है। कलौंजी को विभिन्न बीमारियों में इस प्रकार प्रयोग किया जाता है-


कैंसर के उपचार में कलौंजी के तेल की आधी बड़ी चम्मच को एक गिलास अंगूर के रस में मिलाकर दिन में तीन बार लें। लहसुन भी खुब खाएं। 2 किलो गेहूँ और 1 किलो जौ के मिश्रित आटे की रोटी 40 दिन तक खिलाएं। आलू, अरबी और बैंगन से परहेज़ करें-


अन्य प्रयोग:-



कैंसर के उपचार में कलौंजी के तेल की आधी बड़ी चम्मच को एक गिलास अंगूर के रस में मिलाकर दिन में तीन बार लें। लहसुन भी खुब खाएं। 2 किलो गेहूँ और 1 किलो जौ के मिश्रित आटे की रोटी 40 दिन तक खिलाएं। आलू, अरबी और बैंगन से परहेज़ करें-


खाँसी व दमा छाती और पीठ पर कलौंजी के तेल की मालिश करें, तीन बड़ी चम्मच तेल रोज पीयें और पानी में तेल डाल कर उसकी भाप लें-


अवसाद और सुस्ती एक गिलास संतरे के रस में एक बड़ी चम्मच तेल डाल कर 10 दिन तक सेवन करें। आप को बहुत फर्क महसूस होगा-


स्मरणशक्ति और मानसिक चेतना एक छोटी चम्मच तेल 100 ग्राम उबले हुए पुदीने के साथ सेवन करें-


मधुमेह एक कप कलौंजी के बीज, एक कप राई, आधा कप अनार के छिलके और आधा कप पितपाप्र को पीस कर चूर्ण बना लें। आधी छोटी चम्मच कलौंजी के तेल के साथ रोज नाश्ते के पहले एक महीने तक लें-


गुर्दे की पथरी और मूत्राशय की पथरी पाव भर कलौंजी को महीन पीस कर पाव भर शहद में अच्छी तरह मिला कर रख दें। इस मिश्रण की दो बड़ी चम्मच को एक कप गर्म पानी में एक छोटी चम्मच तेल के साथ अच्छी तरह मिला कर रोज नाश्ते के पहले पियें-


उल्टी और उबकाई एक छोटी चम्मच कार्नेशन और एक बड़ी चम्मच तेल को उबले पुदीने के साथ दिन में तीन बार लें-


हृदय रोग, रक्त चाप और हृदय की धमनियों का अवरोध जब भी कोई गर्म पेय लें, उसमें एक छोटी चम्मच तेल मिला कर लें, रोज सुबह लहसुन की दो कलियां नाश्ते के पहले लें और तीन दिन में एक बार पूरे शरीर पर तेल की मालिश करके आधा घंटा धूप का सेवन करें। यह उपचार एक महीने तक लें-


सफेद दाग और कुष्ठ रोग 15 दिन तक रोज पहले सेब का सिरका मलें, फिर कलौंजी का तेल मलें-


कमर दर्द और गठिया हल्का गर्म करके जहां दर्द हो वहां मालिश करें और एक बड़ी चम्मच तेल दिन में तीन बार लें। 15 दिन में बहुत आराम मिलेगा-


सिर दर्द माथे और सिर के दोनों तरफ कनपटी के आस-पास कलौंजी का तेल लगायें और नाश्ते के पहले एक चम्मच तेल तीन बार लें कुछ सप्ताह बाद सर दर्द पूर्णतः खत्म हो जायेगा-


अम्लता और आमाशय शोथ एक बड़ी चम्मच कलौंजी का तेल एक प्याला दूध में मिलाकर रोज पांच दिन तक सेवन करने से आमाशय की सब तकलीफें दूर हो जाती है-


बाल झड़ना बालों में नीबू का रस अच्छी तरह लगाये, 15 मिनट बाद बालों को शैंपू कर लें व अच्छी तरह धोकर सुखा लें, सूखे बालों में कलौंजी का तेल लगायें एक सप्ताह के उपचार के बाद बालों का झड़ना बन्द हो जायेगा-


नेत्र रोग और कमजोर नजर रोज सोने के पहले पलकों ओर आँखो के आस-पास कलौंजी का तेल लगायें और एक बड़ी चम्मच तेल को एक प्याला गाजर के रस के साथ एक महीने तक लें-


दस्त या पेचिश एक बड़ी चम्मच कलौंजी के तेल को एक चम्मच दही के साथ दिन में तीन बार लें दस्त ठीक हो जायेगा-


रूसी 10 ग्राम कलौंजी का तेल, 30 ग्राम जैतून का तेल और 30 ग्राम पिसी मेहंदी को मिला कर गर्म करें। ठंडा होने पर बालों में लगाएं और एक घंटे बाद बालों को धो कर शैंपू कर लें-


मानसिक तनाव एक चाय की प्याली में एक बड़ी चम्मच कलौंजी का तेल डाल कर लेने से मन शांत हो जाता है और तनाव के सारे लक्षण ठीक हो जाते हैं-


स्त्री गुप्त रोग स्त्रियों के रोगों जैसे श्वेत प्रदर, रक्त प्रदर, प्रसवोपरांत दुर्बलता व रक्त स्त्राव आदि के लिए कलौंजी गुणकारी है। थोड़े से पुदीने की पत्तियों को दो गिलास पानी में डाल कर उबालें, आधा चम्मच कलौंजी का तेल डाल कर दिन में दो बार पियें। बैंगन, आचार, अंडा और मछली से परहेज रखें-


पुरूष गुप्त रोग स्वप्नदोष, स्तंभन दोष, पुरुषहीनता आदि रोगों में एक प्याला सेब के रस में आधी छोटी चम्मच तेल मिला कर दिन में दो बार 21 दिन तक पियें। थोड़ा सा तेल गुप्तांग पर रोज मलें। तेज मसालेदार चीजों से परहेज करें-


इसके अतिरिक्त सुन्दर व आकर्षक चेहरे के लिए, एक बड़ी चम्मच कलौंजी के तेल को एक बड़ी चम्मच जैतून के तेल में मिला कर चेहरे पर मलें और एक घंटे बाद चेहरे को धोलें। कुछ ही दिनों में आपका चेहरा चमक उठेगा। एक बड़ी चम्मच तेल को एक बड़ी चम्मच शहद के साथ रोज सुबह लें, आप तंदुरूस्त रहेंगे और कभी बीमार नहीं होंगे-


कलौंजी के बारे में कई प्राचीन ग्रन्थों में पढ़ने के बाद मैं भी इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि कलौंजी एक महान औषधि है जिसमें हर रोग से लड़ने की अपार, असिमित और अचूक क्षमता है-


उपचार और प्रयोग-

Thursday, October 29, 2015

पीपल कितने रोग में लाभकारी -

पीपल के पत्तों तथा छाल का प्रयोग करने से व्यक्ति बहुत सी बीमारियों से बचा रह सकता है। बीमारियों से बचने का मतलब है स्वस्थ शरीर और ऐसा शरीर ही बहुत समय तक जीवित रह सकता है-यदि हम उनके मूल्य तथा गुणों को पहचान कर लाभ उठाना नहीं चाहते तो इसमें किसका दोष -



                                               ‘‘यत्राश्वत्था प्रतिबुद्धा अभूतन्’’
                                               ‘‘अश्वत्थ व कारणं प्राणवायु..’’

मतलब है कि पीपल का वृक्ष ज्ञानी-ध्यानी लोगों के लिए सब कुछ देता है-जहां यह वृक्ष होता है वहां प्राणवायु मौजूद रहती है। यह बात सच भी मालूम पड़ती है कि आज भी साधु संत और ज्ञानी-ध्यानी लोग पीपल के पेड़ के नीचे कुटिया बनाते तथा धूनी रमाते हैं। वे पीपल की लकड़ी जलाते हैं और रूखा-सूखा खाकर भी दीर्घजीवी होते थे-

पीपल का बूटा-बूटा और पत्ता-पत्ता हमें निरोग बनाता है, स्वस्थ रखता है और लम्बी आयु प्रदान करता है-

पीपल के वृक्ष की विशेषताएं :-


दमा तथा तपेदिक (टी.बी) के रोगियों के लिए पीपल अमृत के समान है। कहा जाता है कि दमा तथा तपेदिक के रोगियों को पीपल के पत्तों की चाय पीनी चाहिए। पीपल की छाल को सुखा कर उसका चूर्ण शहद के साथ लेना चाहिए। जड़ को पानी में उबालकर स्नान करना चाहिए। ये गुण अन्य किसी वृक्ष में नहीं पाए जाते है -

यदि व्यक्ति में नपुंसकता का दोष मौजूद है और वह सन्तान उत्पन्न करने में असमर्थ है तो उसे शमी वृक्ष की जड़ या आसपास उगने वाला पीपल के पेड़ की जटा को औटाकर उसका क्वाथ (काढ़ा) पीना चाहिए। पीपल के जड़ तथा जटा में पुरुषत्व प्रदान करने के गुण विद्यमान हैं-

चर्म-विकारों को जैसे-कुष्ठ, फोड़े-फुन्सी दाद-खाज और खुजली को नष्ट करने वाला है। वैद्य लोग पीपल की छाल घिसकर चर्म रोगों पर लगाने की राय देते हैं। कुष्ठ रोग में पीपल के पत्तों को पीसकर कुष्ठ वाले स्थान पर लगाया जाता है तथा पत्तों का जल सेवन किया जाता है। हमारे ग्रंथों में तो यहां तक लिखा गया है कि पीपल के वृक्ष के नीचे दो घंटे प्रतिदिन नियमित रूप से आसन लगाने से हर प्रकार के त्वचा रोग से छुटकारा मिल जाता है-

विभिन्न रोगों में आजमाए :-


अपच में -


भोजन न पचने की हालत में पेट में दर्द, व्याकुलता जी मिचलाना या कई बार उल्टियां हो जाने की शिकायत हो जाती है। भूख खत्म हो जाती है तथा पेट में गैस अधिक मात्रा में बनने लगती है। कभी-कभी पेट में मरोड़-सा मालूम पड़ता है और जलन के साथ पीड़ा होती है। अम्ल बनने लगता है जो डकारें भी पैदा करता है-

उपचार :-


पीपल के फल 20 ग्राम, जीरा 5 ग्राम, काली मिर्च 5 ग्राम, सोंठ 10 ग्राम, सेंधा नमक 5 ग्राम-सबको अच्छी तरह सुखा लें। फिर पीसकर चूर्ण बनाकर शीशी में रख लें। इसमें से प्रतिदिन सुबह-शाम एक-एक चम्मच चूर्ण गरम पानी के साथ लें। भोजन के बाद भी इस चूर्ण को खाने से काफी लाभ होता है-

आठ लौंग, दो हरड़, चार फल पीपल के तथा दो चुटकी सेंधा नमक-सबको पीसकर चूर्ण बना लें। सुबह-शाम इस चूर्ण का प्रयोग भोजन के बाद करें-

अजयवायन, छोटी हर्र, हींग (2 रत्ती) तथा पीपल की छाल सब 10-10 ग्राम की मात्रा में लेकर पीसकर चूर्ण बना लें। इसमें से आधा चम्मच चूर्ण भोजन के बाद गरम पानी से सेवन करें-

पीपल के पत्तों को कुचल कर एक चम्मच रस निकाल लें। उसमें प्याज का रस आधा चम्मच मिलाएं। दोनों का सेवन सुबह-शाम करें-

पीपल के पत्तों को लेकर सुखा लें। फिर कूट-पीस कर चूर्ण बना लें। एक चम्मच चूर्ण शहद के साथ सुबह-शाम सेवन करें

अजीर्ण रोग में :-


अजीर्ण का रोग हो जाने पर भूख नहीं लगती। खाना भी ठीक से हजम नहीं होता। पेट फूल जाता है और कब्ज के कारण पेट में दर्द होने लगता है। प्यास अधिक लगती है तथा पेट में बार-बार दर्द हो जाता है। जी मिचलाना, बार-बार डकारें आना, पेट में गैस का बनना, सुस्ती, सिर में भारीपन आदि अजीर्ण रोग के प्रमुख लक्षण हैं-

उपचार:-


पीपल की छाल, चार नग लौंग, दो हरड़ तथा एक चुटकी हींग-चारों चीजों को पानी में उबालकर काढ़ा बनाकर सेवन करें।

खट्टी डकारें आती हों तो पीपल के पत्तों को जलाकर उसकी भस्म में आधा नीबू निचोड़ कर सेवन करें।

पीपल के दो फल (गूलर) एक गांठ की दो कलियां लहसुन थोड़ी-सी अदरक, जरा सा हरा धनिया, पुदीना तथा काला नमक सबकी चटनी बनाकर सुबह-शाम भोजन के साथ या बाद में सेवन करें।

पीपल की छाल, जामुन की छाल तथा नीम की छाल तीनों छालों को थोड़ी-छोड़ी मात्रा में लेकर कूट लें। फिर काढ़ा बनाकर सेवन करें। यह काढ़ा पेट के हर रोग के लिए उत्तम दवा है।

एक चम्मच राई, थोड़ी-सी मेथी तथा पीपल की जड़ की छाल-तीनों चीजों को कूट कर काढ़ा बनाकर सेवन करें।

अरुचि में :-


पेट हर समय भारी-भारी रहता है। भोजन लेने को मन करता है लेकिन खाते समय भीतर से जी भोजन को ग्रहण नहीं करता। मुंह में लार आ जाती है। फीकी तथा खट्टी डकारें आती है। यदि यह रोग बराबर बना रहता है तो रोगी को दूसरे रोग भी घेर लेते हैं-

उपचार:-


पीपल के आठ फल सुखाकर पीस लें। इनमें दो चम्मच अजवायन, एक रत्ती हींग, एक चम्मच सोंठ, जरा-सा काला नमक मिला लें। इस चूर्ण में से एक चम्मच चूर्ण सुबह और एक शाम को भोजन के बाद गरम पानी से लें।

पीपल की छाल 10 ग्राम, पीपल (दवा) 5 ग्राम, सोंठ 5 ग्राम-तीनों को महीन पीसकर चूर्ण बना लें। इसमें से एक चम्मच चूर्ण का सेवन दोपहर के बाद करें।

अम्लपित्त:-


तेज, कठोर, खट्टे गरिष्ठ तथा देर से पचने वाले पदार्थों को खाने से पेट में अम्लपित्त बढ़ जाता है। कुछ लोगों को घी, तेल, मिर्च मसाले तथा मांस-मछली खाने का बहुत शौक होता है। पेट तथा सीने में जलन होती है। कभी-कभी आंतों में हल्के घाव बन जाते हैं। भोजन हजम होने के समय पित्त अधिक मात्रा में बनना शुरू हो जाता है। कभी खट्टी तथा कभी फीकी डकारें आने लगती हैं-

उपचार:-

पीपल की थोड़ी-सी कोंपलें, मुलहठी का चूर्ण आधा चम्मच तथा बच का चूर्ण 2 रत्ती-तीनों की चटनी बनाकर शहद के साथ सेवन करें-

पीपल की छाल को सुखाकर पीस लें। उसमें जरा-सी हींग, जरा सा सेंधा नमक तथा जरा-सी अजवायन मिलाकर गरम पानी के साथ सेवन करें।

पीपल के चार सूखे फल, सफेद जीरा, धनिया तीनों 10-10 ग्राम लेकर कूट पीसकर चूर्ण बना लें। इसमें से एक-एक चम्मच भर चूर्ण सुबह-शाम भोजन से पहले करें। गरम पानी से साथ सेवन करे -

10 फल पीपल मुनक्का 50 ग्राम, सौंफ 25 ग्राम, काला नमक 5 ग्राम-सबको पीसकर रख लें। इसमें से एक चम्मच भर पाउडर भोजन के बाद सेवन करें-

पेट की गैस :-



पेट में बहुत अधिक वायु भर जाती है। उसे सांस लेने में कष्ट का अनुभव होता है। पेट की नसें तन जाती हैं। पेट तथा सीने में जलन होती है। रोगी को लगता है जैसे उसका पेट फट जाएगा। नाड़ी तेजी से चलने लगती है। माथे पर पसीना आ जाता है। पेट की गैस ऊपर की ओर चढ़ जाती है तो रह-रहकर डकारें आने लगती हैं सिर में दर्द, माथे का चकराना तथा गिर पड़ना इस रोग के प्रमुख लक्षण हैं-

उपचार:-


पीपल के पत्तों को सुखाकर चूर्ण बना लें। इस चूर्ण में जरा-सी राई पीसकर मिला लें। दोनों को छाछ या मट्ठे के साथ सेवन करें।

पीपल की जड़ 10 ग्राम, गेहूं की भूसी 10 ग्राम, बाजरे के दाने 10 ग्राम, सेंधा नमक दो चुटकी या आधा चम्मच काला जीरा 8 ग्राम अजवायन 5 ग्राम सबको एक पोटली में बांधकर गरम करें। फिर इससे पेट की सिंकाई करें।

बच का चूर्ण 2 रत्ती, काला नमक 4 रत्ती, हींग 2 रत्ती पीपल की छाल 10 ग्राम-सबको सुखाकर पीस लें। इसमें से प्रतिदिन आधा चम्मच चूर्ण गरम पानी के साथ सेवन करें।

पीपल की छाल को पीसकर चूर्ण बना लें। एक चम्मच चूर्ण में दो रत्ती हींग तथा जरा-सा सेंधा नमक मिलाकर सेवन करें-

पेट का दर्द:-

इस रोग में भोजन के बाद आमाशय में पीड़ा होती है। ऐसा लगता है जैसे नाखून से कोई आंतों को खुरच रहा है। खाने की चीजें पेट में पहुंचते ही दर्द शुरू हो जाता है। दर्द की हालत में बेचैनी बढ़ जाती है। यह रोग, भोजन की अधिकता, पेट में मल के रुकने, आंतों में मल के चिपकने, पाचनदोष तथा पेट में वायु के भर जाने के कारण होता है-

उपचार:-



आमाशय से वायु निकलने वाली दवा का प्रयोग सबसे पहले करना चाहिए।पीपल के पत्ते को गरम करके उस पर जरा-सा घी लगाएं। अब पत्ते को पेट पर रखकर पट्टी बांध लें। वायु निकलते ही पेट का दर्द रुक जाएगा-

पीपल की छाल का चूर्ण, अजवायन का चूर्ण, हींग तथा खाने वाला सोडा-सबकी उचित मात्रा लेकर फंकी लगाएं और ऊपर से गरम पानी पी लें।

पीपल के पत्तों का रस 10 ग्राम, भांगरे के पत्तों का रस 5 ग्राम काला नमक 3 ग्राम सबको मिलाकर सेवन करें। तथा सोंठ का चूर्ण एक चम्मच, पीपल के सूखे फलों का चूर्ण एक चम्मच तथा काला नमक चौथाई चम्मच तीनों को मिलाकर सेवन करने से पेट का दर्द तत्काल रुक जाता है-

अतिसार (दस्त):-


गलत खान-पान, अशुद्ध जल, पाचन क्रिया की गड़बड़ी पेट में कीडों का होना, यकृत की खराबी, मौसम बदलने के कारण पेट में खराबी जुलाब लेने की आदत, चिन्ता, शोक, भय, दु:ख आदि के कारण अतिसार का रोग हो जाता है। इसमें पतले दस्त आते हैं किन्तु दस्त आने से पहले पेट में हल्का दर्द होता है। दस्त लगते ही पिचकारी सी छूटती है। चूंकि पेट का जल दस्तों के साथ बाहर निकल जाता है इसलिए बहुत ज्यादा कमजोरी हो जाती है। आँखें भीतर की तरफ धंस जाती हैं और पीली पड़ जाती है। शरीर की त्वचा रुखी हो जाती है। देखते-देखते रोगी की शक्ति क्षीण हो जाती है। प्यास अधिक लगती है और पेट में गुड़गुड़ होती रहती है-

उपचार:-


पीपल के पत्तों के साथ थोड़े से खजूर में पीसकर चटनी बना लें। यह चटनी घंटे-घंटे भर बाद खाएं-

पीपल की कोंपलें, नीम की कोंपलें, बबूल के पत्ते सब 6-6 ग्राम लेकर पीस लें। इसमें थोड़ा-सा शहद मिला लें। इस चटनी की तीन खुराक करके सुबह-दोपहर-शाम को सेवन करें-

पित्त-नाश व बलवृधि के लिए:-

पीपल के कोमल पत्तों का मुरब्बा बड़ी शक्ति देता है | इसके सेवन से शरीर की कई प्रकार की गर्मी-संबंधी बीमारियाँ चली जाती है | यह किडनी की सफाई करता है | पेशाब खुलकर आता है | पित्त से होने वाली आँखों की जलन दूर होती है | यह गर्भाशय व मासिक संबंधी रोगों में लाभकारी है | इसके सेवन से गर्भपात का खतरा दूर हो जाता है |  पीपल के पत्ते ऐसे नहीं तोड़ना चाहिए | पहले पीपल देवता को प्रणाम करना कि ‘महाराज ! औषध के लिए हम आपकी सेवा लेते हैं, कृपा करना |’ पीपल को काटना नहीं चाहिए | उसमें सात्विक देवत्व होता है -

मुरब्बा बनाने की विधि:-


पीपल के २५० ग्राम लाल कोमल पत्तों को पानी से धोकर उबाल लें, फिर पीसकर उसमें समभाग मिश्री व 50 ग्राम देशी गाय का घी मिलाकर धीमी आँच पर सेंक लें | गाढ़ा होने पर ठंडा करके सुरक्षित किसी साफ बर्तन ( काँच की बरनी उत्तम है ) में रख लें -

सेवन-विधि: -


10-10 ग्राम सुबह-शाम दूध से लें -

हृदय मजबूत करने के लिए :- १०-१२ ग्राम पीपल के कोमल पत्तों का रस और चोथाई चमम्च पीसी मिश्री सुबह-शाम लेने से हृदय मजबूत होता है, हृदयघात (हार्ट -अटैक) नहीं होता | इससे मिर्गी व मूर्च्छा की बीमारी में लाभ होता है -

दमा : -


पीपल की अन्तरछाल (छाल के अन्दर का भाग) निकालकर सुखा लें और कूट-पीसकर खूब महीन चूर्ण कर लें, यह चूर्ण दमा रोगी को देने से दमा में आराम मिलता है। पूर्णिमा की रात को खीर बनाकर उसमें यह चूर्ण बुरककर खीर को 4-5 घंटे चन्द्रमा की किरणों में रखें, इससे खीर में ऐसे औषधीय तत्व आ जाते हैं कि दमा रोगी को बहुत आराम मिलता है। इसके सेवन का समय पूर्णिमा की रात को माना जाता है-

दाद-खाज : -


पीपल के 4-5 कोमल, नरम पत्ते खूब चबा-चबाकर खाने से, इसकी छाल का काढ़ा बनाकर आधा कप मात्रा में पीने से दाद, खाज, खुजली आदि चर्म रोगों में आराम होता है-

मसूड़े :- 


मसूड़ों की सूजन दूर करने के लिए इसकी छाल के काढ़े से कुल्ले करें-

अन्य उपयोग : -


इसकी छाल का रस या दूध लगाने से पैरों की बिवाई ठीक हो जाती है।

पीपल की छाल को जलाकर राख कर लें, इसे एक कप पानी में घोलकर रख दें, जब राख नीचे बैठ जाए, तब पानी नितारकर पिलाने से हिचकी आना बंद हो जाता है।

इसके पत्तों को जलाकर राख कर लें, यह राख घावों पर बुरकने से घाव ठीक हो जाते हैं।

जुकाम, खांसी और दमा में फायदा: पीपल के पांच पत्तों को दूध में उबालकर चीनी या खांड डालकर दिन में दो बार, सुबह-शाम पीने से जुकाम, खांसी और दमा में बहुत आराम होता है-

आंखों के दर्द के लिए: इसके पत्तों से जो दूध निकलता है उसे आंख में लगाने से आंख का दर्द ठीक हो जाता है-

दांतों के लिए पीपल की ताजी डंडी दातून के लिए बहुत अच्छी होती है- 

बहुत से लोगों को रात में दिखाई नहीं पड़ता। शाम का झुट-पुटा फैलते ही आंखों के आगे अंधियारा सा छा जाता है। इसकी सहज औषध है पीपल। पीपल की लकड़ी का एक टुकड़ा लेकर गोमूत्र के साथ उसे शिला पर पीसें। इसका अंजन दो-चार दिन आंखों में लगाने से रतौंधी में लाभ होता है-

पीपल की ताजी हरी पत्तियों को निचोड़कर उसका रस कान में डालने से कान दर्द दूर होता है। कुछ समय तक इसके नियमित सेवन से कान का बहरापन भी जाता रहता है-

देखे--ब्लॉकेज को भी रिमूव कर देता है पीपल का पत्ता:-

उपचार और प्रयोग-

ब्लॉकेज के लिए पीपल का पत्ता -

कई लोगो की परेशानी है उनके रक्त-शिराओ में ब्लोकेज है सबसे पहले जान ले कि अदरक का सेवन जादा करे क्युकि अदरक आपके खून को पतला रखता है और पीपल आपको ब्लाकेज से बचाता है -



पीपल के 15 से 20 पत्ते लें जो कोमल गुलाबी कोंपलें न हों, बल्कि पत्ते हरे, कोमल व भली प्रकार विकसित हों। प्रत्येक का ऊपर व नीचे का कुछ भाग कैंची से काटकर अलग कर दें। पत्ते का बीच का भाग पानी से साफ कर लें। इन्हें एक गिलास पानी में धीमी आँच पर पकने दें। जब पानी उबलकर एक तिहाई रह जाए तब ठंडा होने पर साफ कपड़े से छान लें और उसे ठंडे स्थान पर रख दें, अब ये दवा तैयार है-


इस काढ़े की तीन खुराकें बनाकर प्रत्येक तीन घंटे बाद प्रातः लें। हार्ट अटैक के बाद कुछ समय हो जाने के पश्चात लगातार पंद्रह दिन तक इसे लेने से हृदय पुनः स्वस्थ हो जाता है और फिर दिल का दौरा पड़ने की संभावना नहीं रहती। दिल के रोगी इस नुस्खे का एक बार प्रयोग अवश्य करें। इसकी खुराक लेने से पहले पेट एक दम खाली नहीं होना चाहिए, बल्कि सुपाच्य व हल्का नाश्ता करने के बाद ही लें- 

परहेज :-


प्रयोगकाल में तली चीजें, चावल आदि न लें। मांस, मछली, अंडे, शराब, धूम्रपान का प्रयोग बंद कर दें। नमक, चिकनाई का प्रयोग बंद कर दें।अनार, पपीता, आंवला, बथुआ, लहसुन, मैथी दाना, सेब का मुरब्बा, मौसंबी, रात में भिगोए काले चने, किशमिश, गुग्गुल, दही, छाछ आदि लें -

उपचार और प्रयोग-

Wednesday, October 28, 2015

अलसी को अपनाए ये उपहार है सब के लिए - Linseed adopt these gifts for all

सेक्स संबन्धी समस्याओं के उपचारों में सर्वश्रेष्ठ और सुरक्षित है अलसी - एक हर्बल चिकित्सक आपकी सारी सेक्स सम्बंधी समस्याएं अलसी खिला कर ही दुरुस्त कर देगा क्योंकि अलसी आधुनिक युग में स्तंभनदोष के साथ साथ शीघ्रस्खलन, दुर्बल कामेच्छा, बांझपन, गर्भपात, दुग्धअल्पता की भी महान औषधि है -



सेक्स संबन्धी समस्याओं के अन्य सभी उपचारों से सर्वश्रेष्ठ और सुरक्षित है अलसी। बस 30 ग्राम रोज लेनी है-

सबसे पहले तो अलसी आप और आपके जीवनसाथी की त्वचा को आकर्षक,कोमल,नम,बेदाग व गोरा बनायेगी। आपके केश काले, घने, मजबूत, चमकदार और रेशमी हो जायेंगे।

अलसी आपकी देह को ऊर्जावान, बलवान और मांसल बना देगी। शरीर में चुस्ती-फुर्ती बनी गहेगी, न क्रोध आयेगा और न कभी थकावट होगी-मन शांत, सकारात्मक और दिव्य हो जायेगा-

अलसी में विद्यमान ओमेगा-3 फैट, जिंक और मेगनीशियम आपके शरीर में पर्याप्त टेस्टोस्टिरोन हार्मोन और उत्कृष्ट श्रेणी के फेरोमोन ( आकर्षण के हार्मोन) स्रावित होंगे। टेस्टोस्टिरोन से आपकी कामेच्छा चरम स्तर पर होगी। आपके साथी से आपका प्रेम, अनुराग और परस्पर आकर्षण बढ़ेगा। आपका मनभावन व्यक्तित्व, मादक मुस्कान और षटबंध उदर देख कर आपके साथी की कामाग्नि भी भड़क उठेगी-

अलसी में विद्यमान ओमेगा-3 फैट, आर्जिनीन एवं लिगनेन जननेन्द्रियों में रक्त के प्रवाह को बढ़ाती हैं, जिससे शक्तिशाली स्तंभन तो होता ही है साथ ही उत्कृष्ट और गतिशील शुक्राणुओं का निर्माण होता है। इसके अलावा ये शिथिल पड़ी क्षतिग्रस्त नाड़ियों का कायाकल्प करते हैं जिससे सूचनाओं एवं संवेदनाओं का प्रवाह दुरुस्त हो जाता है।

नाड़ियों को स्वस्थ रखने में अलसी में विद्यमान लेसीथिन, विटामिन बी ग्रुप, बीटा केरोटीन, फोलेट, कॉपर आदि की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। ओमेगा-3 फैट के अलावा सेलेनियम और जिंक प्रोस्टेट के रखरखाव, स्खलन पर नियंत्रण, टेस्टोस्टिरोन और शुक्राणुओं के निर्माण के लिए बहुत आवश्यक हैं। कुछ वैज्ञानिकों के मतानुसार अलसी लिंग की लंबाई और मोटाई भी बढ़ाती है।

अलसी के सेवन से कैसे प्रेम और यौवन की रासलीला सजती है, जबर्दस्त अश्वतुल्य स्तंभन होता है, जब तक मन न भरे सम्भोग का दौर चलता है, देह के सारे चक्र खुल जाते हैं, पूरे शरीर में दैविक ऊर्जा का प्रवाह होता है और सम्भोग एक यांत्रिक क्रीड़ा न रह कर एक आध्यात्मिक उत्सव बन जाता है, समाधि का रूप बन जाता है-

अलसी सेवन का तरीकाः-


हमें प्रतिदिन 30 – 60 ग्राम अलसी का सेवन करना चाहिये। 30 ग्राम आदर्श मात्रा है। अलसी को रोज मिक्सी के ड्राई ग्राइंडर में पीसकर आटे में मिलाकर रोटी, पराँठा आदि बनाकर खाना चाहिये। डायबिटीज के रोगी सुबह शाम अलसी की रोटी खायें। कैंसर में बुडविग आहार-विहार की पालना पूरी श्रद्धा और पूर्णता से करना चाहिये। इससे ब्रेड, केक, कुकीज, आइसक्रीम, चटनियाँ, लड्डू आदि स्वादिष्ट व्यंजन भी बनाये जाते हैं-

दूसरा एक तरीका है कि आप अलसी को सूखी कढ़ाई में डालिये, रोस्ट कीजिये (अलसी रोस्ट करते समय चट चट की आवाज करती है) और मिक्सी से पीस लीजिये. इन्हें थोड़े दरदरे पीसिये, एकदम बारीक मत कीजिये. भोजन के बाद सौंफ की तरह इसे खाया जा सकता है .लेकिन आप इसे जादा मात्रा में बना के न रक्खे क्युकि ये खराब हो जाती है .एक हफ्ते के लिए बनाना ही चाहिए .अलसी आपको अनाज बेचने वाले तथा पंसारी या आयुर्वेदिक जड़ी बूटी बेचने वालो के यहाँ से मिल जायेगी -

अलसी की पुल्टिस का प्रयोग गले एवं छाती के दर्द, सूजन तथा निमोनिया और पसलियों के दर्द में लगाकर किया जाता है। इसके साथ यह चोट, मोच, जोड़ों की सूजन, शरीर में कहीं गांठ या फोड़ा उठने पर लगाने से शीघ्र लाभ पहुंचाती है। यह श्वास नलियों और फेफड़ों में जमे कफ को निकाल कर दमा और खांसी में राहत देती है।

इसकी बड़ी मात्रा विरेचक तथा छोटी मात्रा गुर्दो को उत्तेजना प्रदान कर मूत्र निष्कासक है।

यह पथरी, मूत्र शर्करा और कष्ट से मूत्र आने पर गुणकारी है।

अलसी के तेल का धुआं सूंघने से नाक में जमा कफ निकल आता है और पुराने जुकाम में लाभ होता है। यह धुआं हिस्टीरिया रोग में भी गुण दर्शाता है।

अलसी के काढ़े से एनिमा देकर मलाशय की शुद्धि की जाती है। उदर रोगों में इसका तेल पिलाया जाता हैं।

अलसी के तेल और चूने के पानी का इमल्सन आग से जलने के घाव पर लगाने से घाव बिगड़ता नहीं और जल्दी भरता है।

पथरी, सुजाक एवं पेशाब की जलन में अलसी का फांट पीने से रोग में लाभ मिलता है। अलसी के कोल्हू से दबाकर निकाले गए (कोल्ड प्रोसेस्ड) तेल को फ्रिज में एयर टाइट बोतल में रखें। स्नायु रोगों, कमर एवं घुटनों के दर्द में यह तेल पंद्रह मि.ली. मात्रा में सुबह-शाम पीने से काफी लाभ मिलेगा।

इसी कार्य के लिए इसके बीजों का ताजा चूर्ण भी दस-दस ग्राम की मात्रा में दूध के साथ प्रयोग में लिया जा सकता है। यह नाश्ते के साथ लें।

बवासीर, भगदर, फिशर आदि रोगों में अलसी का तेल (एरंडी के तेल की तरह) लेने से पेट साफ हो मल चिकना और ढीला निकलता है। इससे इन रोगों की वेदना शांत होती है।

अलसी के बीजों का मिक्सी में बनाया गया दरदरा चूर्ण पंद्रह ग्राम, मुलेठी पांच ग्राम, मिश्री बीस ग्राम, आधे नींबू के रस को उबलते हुए तीन सौ ग्राम पानी में डालकर बर्तन को ढक दें। तीन घंटे बाद छानकर पीएं। इससे गले व श्वास नली का कफ पिघल कर जल्दी बाहर निकल जाएगा। मूत्र भी खुलकर आने लगेगा।

इसकी पुल्टिस हल्की गर्म कर फोड़ा, गांठ, गठिया, संधिवात, सूजन आदि में लाभ मिलता है।

डायबिटीज के रोगी को कम शर्करा व ज्यादा फाइबर खाने की सलाह दी जाती है। अलसी व गैहूं के मिश्रित आटे में (जहां अलसी और गैहूं बराबर मात्रा में हो)

अलसी बांझपन, पुरूषहीनता, शीघ्रस्खलन व स्थम्भन दोष में बहुत लाभदायक है।

कई असाध्य रोग जैसे अस्थमा, एल्ज़ीमर्स, मल्टीपल स्कीरोसिस, डिप्रेशन, पार्किनसन्स, ल्यूपस नेफ्राइटिस, एड्स, स्वाइन फ्लू आदि का भी उपचार करती है अलसी। कभी-कभी चश्में से भी मुक्ति दिला देती है अलसी। दृष्टि को स्पष्ट और सतरंगी बना देती है अलसी।

जोड़ की हर तकलीफ का तोड़ है अलसी। जॉइन्ट रिप्लेसमेन्ट सर्जरी का सस्ता और बढ़िया उपचार है अलसी। ­­ आर्थ्राइटिस, शियेटिका, ल्युपस, गाउट, ओस्टियोआर्थ्राइटिस आदि का उपचार है अलसी।

लिगनेन का सबसे बड़ा स्रोत अलसी ही है जो जीवाणुरोधी, विषाणुरोधी, फफूंदरोधी और कैंसररोधी है। अलसी शरीर की रक्षा प्रणाली को सुदृढ़ कर शरीर को बाहरी संक्रमण या आघात से लड़ने में मदद करती हैं और शक्तिशाली एंटी-आक्सीडेंट है।

लिगनेन वनस्पति जगत में पाये जाने वाला एक उभरता हुआ सात सितारा पोषक तत्व है जो स्त्री हार्मोन ईस्ट्रोजन का वानस्पतिक प्रतिरूप है और नारी जीवन की विभिन्न अवस्थाओं जैसे रजस्वला, गर्भावस्था, प्रसव, मातृत्व और रजोनिवृत्ति में विभिन्न हार्मोन्स् का समुचित संतुलन रखता है। लिगनेन मासिकधर्म को नियमित और संतुलित रखता है। लिगनेन रजोनिवृत्ति जनित-कष्ट और अभ्यस्त गर्भपात का प्राकृतिक उपचार है। लिगनेन दुग्धवर्धक है। लिगनेन स्तन, बच्चेदानी, आंत, प्रोस्टेट, त्वचा व अन्य सभी कैंसर, एड्स, स्वाइन फ्लू तथा एंलार्ज प्रोस्टेट आदि बीमारियों से बचाव व उपचार करता है।

त्वचा, केश और नाखुनों का नवीनीकरण या जीर्णोद्धार करती है अलसी। अलसी के शक्तिशाली एंटी-ऑक्सीडेंट ओमेगा-3 व लिगनेन त्वचा के कोलेजन की रक्षा करते हैं और त्वचा को आकर्षक, कोमल, नम, बेदाग व गोरा बनाते हैं। अलसी सुरक्षित, स्थाई और उत्कृष्ट भोज्य सौंदर्य प्रसाधन है जो त्वचा में अंदर से निखार लाता है। त्वचा, केश और नाखून के हर रोग जैसे मुहांसे, एग्ज़ीमा, दाद, खाज, खुजली, सूखी त्वचा, सोरायसिस, ल्यूपस, डेन्ड्रफ, बालों का सूखा, पतला या दोमुंहा होना, बाल झड़ना आदि का उपचार है अलसी। चिर यौवन का स्रोता है अलसी। बालों का काला हो जाना या नये बाल आ जाना जैसे चमत्कार भी कर देती है अलसी। किशोरावस्था में अलसी के सेवन करने से कद बढ़ता है।

अलसी एक फीलगुड फूड है :-

क्योंकि अलसी से मन प्रसन्न रहता है, झुंझलाहट या क्रोध नहीं आता है, पॉजिटिव एटिट्यूड बना रहता है यह आपके तन, मन और आत्मा को शांत और सौम्य कर देती है। अलसी के सेवन से मनुष्य लालच, ईर्ष्या, द्वेश और अहंकार छोड़ देता है। इच्छाशक्ति, धैर्य, विवेकशीलता बढ़ने लगती है, पूर्वाभास जैसी शक्तियाँ विकसित होने लगती हैं। इसीलिए अलसी देवताओं का प्रिय भोजन थी। यह एक प्राकृतिक वातानुकूलित भोजन है।

अलसी कॉलेस्ट्रॉल, ब्लड प्रेशर और हृदयगति को सही रखती है। रक्त को पतला बनाये रखती है अलसी। रक्तवाहिकाओं को साफ करती रहती है अलसी।

अलसी शर्करा ही नियंत्रित नहीं रखती, बल्कि मधुमेह के दुष्प्रभावों से सुरक्षा और उपचार भी करती है। अलसी में रेशे भरपूर 27% पर शर्करा 1.8% यानी नगण्य होती है। इसलिए यह शून्य-शर्करा आहार कहलाती है और मधुमेह के लिए आदर्श आहार है। अलसी बी.एम.आर. बढ़ाती है, खाने की ललक कम करती है, चर्बी कम करती है, शक्ति व स्टेमिना बढ़ाती है, आलस्य दूर करती है और वजन कम करने में सहायता करती है। चूँकि ओमेगा-3 और प्रोटीन मांस-पेशियों का विकास करते हैं अतः बॉडी बिल्डिंग के लिये भी नम्बर वन सप्लीमेन्ट है अलसी

आयुर्वेद के अनुसार हर रोग की जड़ पेट है और पेट साफ रखने में यह इसबगोल से भी ज्यादा प्रभावशाली है। आई.बी.एस., अल्सरेटिव कोलाइटिस, अपच, बवासीर, मस्से आदि का भी उपचार करती है अलसी।

ओमेगा-3 हमारे शरीर की सारी कोशिकाओं, उनके न्युक्लियस, माइटोकोन्ड्रिया आदि संरचनाओं के बाहरी खोल या झिल्लियों का महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। यही इन झिल्लियों को वांछित तरलता, कोमलता और पारगम्यता प्रदान करता है। ओमेगा-3 का अभाव होने पर शरीर में जब हमारे शरीर में ओमेगा-3 की कमी हो जाती है तो ये भित्तियां मुलायम व लचीले ओमेगा-3 के स्थान पर कठोर व कुरुप ओमेगा-6 फैट या ट्रांस फैट से बनती है, ओमेगा-3 और ओमेगा-6 का संतुलन बिगड़ जाता है, प्रदाहकारी प्रोस्टाग्लेंडिन्स बनने लगते हैं, हमारी कोशिकाएं इन्फ्लेम हो जाती हैं, सुलगने लगती हैं और यहीं से ब्लडप्रेशर, डायबिटीज, मोटापा, डिप्रेशन, आर्थ्राइटिस और कैंसर आदि रोगों की शुरूवात हो जाती है।

फिर अभी भी क्या सोच रहे है आज ही अपनाए और देखे इसके फायदे ....गर्मी में आप इसकी मात्रा आधी कर ले सिर्फ 15 ग्राम ही सेवन करे -

उपचार और प्रयोग -

Tuesday, October 27, 2015

किसी भी घाव को भर देता है ये सत्यानासी का पौधा -

सत्यानाशी ऐसा नाम है जिसे सुन के ही अजीब लगता है फिर भला यदि सत्यानाशी किसी पौधे का नाम हो तो कौन इसे अपने घर मे लगायेगा-



वनस्पतियो के मूल नाम विशेषकर अंग्रेजी नाम अच्छे होते है पर स्थानीय नाम उनके असली गुणो (दुर्गुण कहे तो ज्यादा ठीक होगा) के बारे मे बता देते है। इसी प्रकार मार्निंग ग्लोरी के अंग्रेजी नाम से पहचाना जाने वाला पौधा अपने दुर्गुणो के कारण बेशरम या बेहया के स्थानीय नाम से जाना जाता है।

सु-बबूल की भी यही कहानी है। यह अपने तेजी से फैलने और फिर स्थापित होकर समस्या पैदा करने के अवगुण के कारण कु-बबूल के रुप मे जाना जाता था।वैज्ञानिको को पता नही कैसे यह जँच गया। उन्होने इसका नाम बदलकर सु-बबूल रख दिया और किसानो के लिये इसे उपयोगी बताते हुये वे इसका प्रचार-प्रसार करने मे जुट गये। कुछ किसान उनके चक्कर मे आ गये। जब उन्होने इसे लगाया तो जल्दी ही वे समझ गये कि इसका नाम कु-बबूल क्यो रखा गया था। अब लोग फिर से इसे कु-बबूल के रुप मे जानते है। वैसे अंग्रेजी नाम भी कई बार वनस्पतियो की पोल खोल देते है। जैसे बायोडीजल के रुप मे प्रचारित जैट्रोफा को ही ले। जिस तेल से बायोडीजल बनाया जाना है उसे ही ब्रिटेन मे हेल आइल (नरकीय तेल) का नाम मिला है। यूँ ही यह नाम नही रखा गया है। वहाँ के लोग लम्बे समय से जानते है कि इस तेल मे कैसर पैदा करने वाले रसायन होते है। इसलिये उन्होने इसे यह गन्दा नाम दे दिया है।

अब हम सत्यानाशी पर आते है। यह वनस्पति आम तौर पर बेकार जमीन मे उगती है। इसमे काँटे होते है और इसे अच्छी नजर से नही देखा जाता है। घर के आस-पास यदि यह दिख जाये तो लोग इसे उखाडना पसन्द करते है। गाँव के ओझा जब विशेष तरह का भूत उतारते है तो इसके काँटो से प्रभावित महिला की पिटाई की जाती है। बहुत बार इस पर लेटा कर भी प्रभावित की परीक्षा ली जाती है। तंत्र साधना मे भी इसका प्रयोग होता है। आम तौर पर ऐसी वनस्पतियो से लोग दूरी बनाये रखते है। सत्यानाशी से सम्बन्धित दसो किस्म के विश्वास और अन्ध-विश्वास देश के अलग-लग कोनो मे अलग-अलग रुपो मे उपस्थित है। आम लोग जहाँ इसे अशुभ मानते है वही चतुर व्यापारी इससे लाभ कमाते है-

सरसो के तेल मे मिलावट और इसके कारण होने वाले ड्राप्सी रोग के विषय मे तो समय-समय पर पढा ही होगा। दरअसल मिलावट तेल मे नही होती है। मिलावट होती है बीजो मे। और सरसो के साथ ऐसे बीज मिलाये जाते है जो बिल्कुल उसी की तरह दिखते हो। भारत मे सबसे अधिक मिलावट सत्यानाशी के बीजो की होती है। व्यापारी बडे भोलेपन से यह कह देते है कि यह मिलावट हम नही करते है। यह खेतो मे अपने-आप हो जाती है। सरसो के खेतो मे सत्यानाशी के पौधे बतौर खरप्तवार उगते है। दोनो ही एक ही समय पर पकते है। इस तरह खेत मे ही वे मिल जाते है। वे यह भी कहते है कि सरसो को उखाड कर जब खलिहान मे लाते है तो सत्यानाशी के पौधे भी साथ मे आ जाते है। यह एक सफेद झूठ है। सत्यानाशी का पौधा सरसो के खेतो मे नही उगता है। जबकि ये यह बेकार जमीन की वनस्पति है-

आज के सरसो तेल मे वो बात नही है तो आप खीझ उठते है। पर यह कटु सत्य है कि सरसो के तेल मे सत्यानाशी की मिलावट होती है जो कि आपको सीधे नुकसान करती है।व्यापारी लोग बताते है  कि ऐसी मिलावट से सरसो के तेल की सनसनाहट बढ जाती है। आजकल लोग यही देखकर तेल खरीदते है। इसलिये इस तरह की मिलावट करनी होती है-

इसका वैज्ञानिक नाम आर्जिमोन मेक्सिकाना यह इशारा करे कि यह मेक्सिको का पौधा है पर प्राचीन भारतीय चिकित्सा ग्रंथो मे इसके औषधीय गुणो का विस्तार से वर्णन मिलता है। इसका संस्कृत नाम स्वर्णक्षीरी सत्यानाशी की तरह बिल्कुल भी नही डराता है। यह नाम तो स्वर्ग से उतरी किसी वनस्पति का लगता है। यह बडे की अचरज की बात है कि सत्यानाशी के बीज जिस रोग को पैदा करते है उसकी चिकित्सा सत्यानाशी की पत्तियो और जडो से की जाती है। आज भी देश के पारम्परिक चिकित्सक सत्यानाशी के बीजो के दुष्प्रभाव हो ऐसे ही उपचारित करते है-

जबकि आयुर्वेदिक ग्रंथ 'भावप्रकाश निघण्टु' में इस वनस्पति को स्वर्णक्षीरी या कटुपर्णी जैसे सुंदर नामों से सम्बोधित किया गया है। इसके विभिन्न भाषाओ में नाम है -

संस्कृत- स्वर्णक्षीरी, कटुपर्णी।

हिन्दी- सत्यानाशी, भड़भांड़, चोक।

मराठी- कांटेधोत्रा।

गुजराती- दारुड़ी।

बंगाली- चोक, शियालकांटा।

तेलुगू- इट्टूरि।

तमिल- कुडियोट्टि।

कन्नड़- दत्तूरि।

मलयालम- पोन्नुम्माट्टम।

इंग्लिश- मेक्सिकन पॉपी।

लैटिन- आर्जिमोन मेक्सिकाना।

यह कांटों से भरा हुआ, लगभग 2-3 फीट ऊंचा और वर्षाकाल तथा शीतकाल में पोखरों, तलैयों और खाइयों के किनारे लगा पाया जाने वाला पौधा होता है। इसका फूल पीला और पांच-सात पंखुड़ी वाला होता है। इसके बीज राई जैसे और संख्या में अनेक होते हैं। इसके पत्तों व फूलों से पीले रंग का दूध निकलता है, इसलिए इसे 'स्वर्णक्षीरी' यानी सुनहरे रंग के दूध वाली कहते हैं।

इसकी जड़, बीज, दूध और तेल को उपयोग में लिया जाता है। इसका प्रमुख योग 'स्वर्णक्षीरी तेल' के नाम से बनाया जाता है। यह तेल सत्यानाशी के पंचांग (सम्पूर्ण पौधे) से ही बनाया जाता है। इस तेल की यह विशेषता है कि यह किसी भी प्रकार के व्रण (घाव) को भरकर ठीक कर देता है।

व्रणकुठार तेल बनाये :-



निर्माण विधि :-


आप इस पौधे को सावधानीपूर्वक कांटों से बचाव करते हुए, जड़ समेत उखाड़ लाएं। इसे पानी में धोकर साफ करके कुचल कर इसका रस निकाल लें। फिर जितना रस हो, उससे चौथाई भाग अच्छा शुद्ध सरसों का तेल मिला लें और मंदी आंच पर रखकर पकाएं। जब रस जल जाए, सिर्फ तेल बचे तब उतारकर ठंडा कर लें और शीशी में भर लें। यह व्रणकुठार तेल है। जेसे अगर 200 ग्राम रस है तो 50 ग्राम ही शुद्ध घानी का सरसों का तेल डाले और पक के वापस 50 ग्राम तेल बचे तो रख ले -

प्रयोग विधि : -


किसी भी प्रकार के जख्म (घाव) को नीम के पानी से धोकर साफ कर लें। साफ रूई को तेल में डुबोकर तेल घाव पर लगाएं। यदि घाव बड़ा हो, बहुत पुराना हो तो रूई को घाव पर रखकर पट्टी बांध दें। कुछ दिनों में घाव भर कर ठीक हो जाएगा।ये घाव ठीक करने की अचूक दवा है अगर पुराना नासूर है तो भी ये दवा उतनी ही कारगर है-

उपचार और प्रयोग-

Monday, October 26, 2015

शंख से घर में आये सुख-शांति और रोगों से मुक्ति -

हमारे हिन्दू धर्म में शंख को पवित्र और शुभ फलदायी माना गया है। इसलिए पूजा-पाठ में शंख बजाने का नियम है हम अगर इसके धार्मिक पहलू को दर किनार भी कर दें तो भी घर में शंख रखने और इसे नियमित तौर पर बजाने के ऐसे कई फायदे हैं जो सीधे तौर पर हमारी सेहत और घर की सुख-शांति से जुड़े हैं-





ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, शंख चंद्रमा और सूर्य के समान ही देवस्वरूप है। इसके मध्य में वरुण, पृष्ठ भाग में ब्रह्मा और अग्र भाग में गंगा और सरस्वती का निवास है। शंख से शिवलिंग, कृष्ण या लक्ष्मी विग्रह पर जल या पंचामृत अभिषेक करने पर देवता प्रसन्न होते हैं-


कल्याणकारी शंख दैनिक जीवन में दिनचर्या को कुछ समय के लिए विराम देकर मौन रूप से देव अर्चना के लिए प्रेरित करता है। यह भारतीय संस्कृति की धरोहर है। विज्ञान के अनुसार शंख समुद्र में पाए जाने वाले एक प्रकार के घोंघे का खोल है जिसे वह अपनी सुरक्षा के लिए बनाता है। समुद्री प्राणी का खोल शंख कितना चमत्कारी हो सकता है-


हिन्दू धर्म में पूजा स्थल पर शंख रखने की परंपरा है क्योंकि शंख को सनातन धर्म का प्रतीक माना जाता है। शंख निधि का प्रतीक है। ऐसा माना जाता है कि इस मंगलचिह्न को घर के पूजास्थल में रखने से अरिष्टों एवं अनिष्टों का नाश होता है और सौभाग्य की वृद्धि होती है। स्वर्गलोक में अष्टसिद्धियों एवं नव -निधियों में शंख का महत्त्वपूर्ण स्थान है। हिन्दू धर्म में शंख का महत्त्व अनादि काल से चला आ रहा है। शंख का हमारी पूजा से निकट का सम्बन्ध है।


यहाँ तक कहा जाता है कि शंख का स्पर्श पाकर साधारण जल भी गंगाजल के सदृश पवित्र हो जाता है। मन्दिर में शंख में जल भरकर भगवान की आरती की जाती है। आरती के बाद शंख का जल भक्तों पर छिड़का जाता है जिससे वे प्रसन्न होते हैं। जो भगवान कृष्ण को शंख में फूल, जल और अक्षत रखकर उन्हें अर्ध्य देता है, उसको अनन्त पुण्य की प्राप्ति होती है।


शंख में जल भरकर "ऊँ नमोनारायण"  का उच्चारण करते हुए भगवान को स्नान कराने से पापों का नाश होता है।


सभी धार्मिक कृत्यों में शंख का उपयोग किया जाता है। पूजा-आराधना, अनुष्ठान-साधना, आरती, महायज्ञ एवं तांत्रिक क्रियाओं के साथ शंख का वैज्ञानिक एवं आयुर्वेदिक महत्त्व भी है।


हिन्दू मान्यता के अनुसार कोई भी पूजा, हवन, यज्ञ आदि शंख के उपयोग के बिना पूर्ण नहीं माना जाता है। कुछ गुह्य साधनाओं में इसकी अनिवार्यता होती है। शंख साधक को उसकी इच्छित मनोकामना पूर्ण करने में सहायक होते हैं तथा जीवन को सुखमय बनाते हैं। शंख को विजय, समृद्धि, सुख, यश, कीर्ति तथा लक्ष्मी का प्रतीक माना गया है। वैदिक अनुष्ठानों एवं तांत्रिक क्रियाओं में भी विभिन्न प्रकार के शंखों का प्रयोग किया जाता है।


शंख कई प्रकार के होते हैं और सभी प्रकारों की विशेषता एवं पूजन-पद्धति भिन्न-भिन्न है। उच्च श्रेणी के श्रेष्ठ शंख कैलाश मानसरोवर, मालद्वीप, लक्षद्वीप, कोरामंडल द्वीप समूह, श्रीलंका एवं भारत में पाये जाते हैं। शंख की आकृति (उदर) के आधार पर इसके प्रकार माने जाते हैं।


ये तीन प्रकार के होते हैं :-




दक्षिणावृत्ति शंख

मध्यावृत्ति शंख

वामावृत्ति शंख


जो शंख दाहिने हाथ से पकड़ा जाता है, वह दक्षिणावृत्ति शंख कहलाता है। जिस शंख का मुँह बीच में खुलता है, वह मध्यावृत्ति शंख होता है तथा जो शंख बायें हाथ से पकड़ा जाता है, वह वामावृत्ति शंख कहलाता है।


शंख का उदर दक्षिण दिशा की ओर हो तो दक्षिणावृत्त और जिसका उदर बायीं ओर खुलता हो तो वह वामावृत्त शंख है। मध्यावृत्ति एवं दक्षिणावृति शंख सहज रूप से उपलब्ध नहीं होते हैं। इनकी दुर्लभता एवं चमत्कारिक गुणों के कारण ये अधिक मूल्यवान होते हैं। इनके अलावा लक्ष्मी शंख, गोमुखी शंख, कामधेनु शंख, विष्णु शंख, देव शंख, चक्र शंख, पौंड्र शंख, सुघोष शंख, गरुड़ शंख, मणिपुष्पक शंख, राक्षस शंख, शनि शंख, राहु शंख, केतु शंख, शेषनाग शंख, कच्छप शंख आदि प्रकार के होते हैं। हिन्दुओं के 33 करोड़ देवता हैं। सबके अपने- अपने शंख हैं। देव-असुर संग्राम में अनेक तरह के शंख निकले, इनमे कई सिर्फ़ पूजन के लिए होते है।


समुद्र मंथन के समय देव- दानव संघर्ष के दौरान समुद्र से 14 अनमोल रत्नों की प्राप्ति हुई। जिनमें आठवें रत्न के रूप में शंखों का जन्म हुआ।

गणेश शंख :-




जिनमें सर्वप्रथम पूजित देव गणेश के आकर के गणेश शंख का प्रादुर्भाव हुआ जिसे गणेश शंख कहा जाता है। इसे प्रकृति का चमत्कार कहें या गणेश जी की कृपा की इसकी आकृति और शक्ति हू-ब-हू गणेश जी जैसी है। गणेश शंख प्रकृति का मनुष्य के लिए अनूठा उपहार है। निशित रूप से वे व्यक्ति परम सौभाग्यशाली होते हैं जिनके पास या घर में गणेश शंख का पूजन दर्शन होता है। भगवान गणेश सर्वप्रथम पूजित देवता हैं। इनके अनेक स्वरूपों में यथा- विघ्न नाशक गणेश, दरिद्रतानाशक गणेश, कर्ज़ मुक्तिदाता गणेश, लक्ष्मी विनायक गणेश, बाधा विनाशक गणेश, शत्रुहर्ता गणेश, वास्तु विनायक गणेश, मंगल कार्य गणेश आदि- आदि अनेकों नाम और स्वरुप गणेश जी के जन सामान्य में व्याप्त हैं। गणेश जी की कृपा से सभी प्रकार की विघ्न- बाधा और दरिद्रता दूर होती है।


जहाँ दक्षिणावर्ती शंख का उपयोग केवल और केवल लक्ष्मी प्राप्ति के लिए किया जाता है। वही श्री गणेश शंख का पूजन जीवन के सभी क्षेत्रों की उन्नति और विघ्न बाधा की शांति हेतु किया जाता है। इसकी पूजा से सकल मनोरथ सिद्ध होते है। गणेश शंख आसानी से नहीं मिलने के कारण दुर्लभ होता है। सौभाग्य उदय होने पर ही इसकी प्राप्ति होती है।


आर्थिक, व्यापारिक और पारिवारिक समस्याओं से मुक्ति पाने का श्रेष्ठ उपाय श्री गणेश शंख है। अपमान जनक कर्ज़ बाधा इसकी स्थापना से दूर हो जाती है। इस शंख की आकृति भगवान गणपति के सामान है। शंख में निहित सूंड का रंग अद्भुत प्राकृतिक सौन्दर्य युक्त है। प्रकृति के रहस्य की अनोखी झलक गणेश शंख के दर्शन से मिलती है।


विधिवत सिद्ध और प्राण प्रतिष्ठित गणेश शंख की स्थापना चमत्कारिक अनुभूति होती ही है। किसी भी बुधवार को प्रातः स्नान आदि से निवृत्ति होकर विधिवत प्राण प्रतिष्ठित श्री गणेश शंख को अपने घर या व्यापार स्थल के पूजा घर में रख कर धूप- दीप पुष्प से संक्षिप्त पूजन करके रखें। ये अपने आप में चैतन्य शंख है। इसकी स्थापना मात्र से ही गणेश कृपा की अनुभूति होने लगाती है। इसके सम्मुख नित्य धूप- दीप जलना ही पर्याप्त है किसी जटिल विधि- विधान से पूजा करने की जरुरत नहीं है। बस एक बार किसी योग्य विद्धवान से एक बार स्थापना करा ले -


महालक्ष्मी शंख :-




इसका आकार श्री यंत्र क़ी भांति होता है। इसे प्राक्रतिक श्री यंत्र भी माना जाता है। जिस घर में इसकी पूजा विधि विधान से होती है वहाँ स्वयं लक्ष्मी जी का वाश होता है। इसकी आवाज़ सुरीली होती है। विद्या क़ी देवी सरस्वती भी शंख धारण करती है। वे स्वयं वीणा शंख कि पूजा करती है। माना जाता है कि इसकी पूजा वा इसके जल को पीने से मंद बुद्धि व्‍यक्ति भी ज्ञानी हो जाता है।


दक्षिणावर्ती शंख:-




स्वयं भगवान विष्णु अपने दाहिने हाथ में दक्षिणावर्ती शंख धारण करते है। पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन के समय यह शंख निकला था। जिसे स्वयं भगवान विष्णु जी ने धारण किया था। यह ऐसा शंख है जिसे बजाया नहीं जाता, इसे सर्वाधिक शुभ माना जाता है।


शंख की उत्पत्ति:-



शंख की उत्पत्ति संबंधी पुराणों में एक कथा वर्णित है। सुदामा नामक एक कृष्ण भक्त पार्षद राधा के शाप से शंखचूड़ दानवराज होकर दक्ष के वंश में जन्मा। अन्त में [विष्णु] ने इस दानव का वध किया। शंखचूड़ के वध के पश्चात्‌ सागर में बिखरी उसकी अस्थियों से शंख का जन्म हुआ और उसकी आत्मा राधा के शाप से मुक्त होकर गोलोक वृंदावन में श्रीकृष्ण के पास चली गई।


भारतीय धर्मशास्त्रों में शंख का विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है। मान्यता है कि इसका प्रादुर्भाव समुद्र-मंथन से हुआ था। समुद्र-मंथन से प्राप्त 14 रत्नों में से छठवां रत्न शंख था। अन्य 13 रत्नों की भांति शंख में भी वही अद्भुत गुण मौजूद थे। विष्णु पुराण के अनुसार माता लक्ष्मी समुद्रराज की पुत्री हैं तथा शंख उनका सहोदर भाई है। अत यह भी मान्यता है कि जहाँ शंख है, वहीं लक्ष्मी का वास होता है।


इन्हीं कारणों से शंख की पूजा भक्तों को सभी सुख देने वाली है। शंख की उत्पत्ति के संबंध में हमारे धर्म ग्रंथ कहते हैं कि सृष्टी आत्मा से, आत्मा आकाश से, आकाश वायु से, वायु आग से, आग जल से और जल पृथ्वी से उत्पन्न हुआ है और इन सभी तत्व से मिलकर शंख की उत्पत्ति मानी जाती है।


भागवत पुराण के अनुसार, संदीपन ऋषि आश्रम में श्रीकृष्ण ने शिक्षा पूर्ण होने पर उनसे गुरु दक्षिणा लेने का आग्रह किया। तब ऋषि ने उनसे कहा कि समुद्र में डूबे मेरे पुत्र को ले आओ। कृष्ण ने समुद्र तट पर शंखासुर को मार गिराया। उसका खोल शेष रह गया। माना जाता है कि उसी से शंख की उत्पत्ति हुई। पांचजन्य शंख वही था।


पौराणिक कथाओं के अनुसार, शंखासुर नामक असुर को मारने के लिए श्री विष्णु ने मत्स्यावतार धारण किया था। शंखासुर के मस्तक तथा कनपटी की हड्डी का प्रतीक ही शंख है। उससे निकला स्वर सत की विजय का प्रतिनिधित्व करता है।


शिव पुराण के अनुसार शंखचूड नाम का महापराक्रमी दैत्य हुआ। शंखचूड दैत्यराम दंभ का पुत्र था। दैत्यराज दंभ को जब बहुत समय तक कोई संतान उत्पन्न नहीं हुई तब उसने विष्णु के लिए घोर तप किया और तप से प्रसन्न होकर विष्णु प्रकट हुए। विष्णु ने वर मांगने के लिए कहा तब दंभ ने एक महापराक्रमी तीनों लोको के लिए अजेय पुत्र का वर मांगा और विष्णु तथास्तु बोलकर अंतध्र्यान हो गए। तब दंभ के यहां शंखचूड का जन्म हुआ और उसने पुष्कर में ब्रह्मा की घोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न कर लिया। ब्रह्मा ने वर मांगने के लिए कहा और शंखचूड ने वर मांगा कि वो देवताओं के लिए अजेय हो जाए। ब्रह्मा ने तथास्तु बोला और उसे श्री कृष्ण कवच दिया फिर वे अंतध्र्यान हो गए। जाते-जाते ब्रह्मा ने शंखचूड को धर्मध्वज की कन्या तुलसी से विवाह करने की आज्ञा दी। ब्रह्मा की आज्ञा पाकर तुलसी और शंखचूड का विवाह हो गया। ब्रह्मा और विष्णु के वर के मद में चूर दैत्यराज शंखचूड ने तीनों लोकों पर स्वामित्व स्थापित कर लिया। देवताओं ने त्रस्त होकर विष्णु से मदद मांगी परंतु उन्होंने खुद दंभ को ऐसे पुत्र का वरदान दिया था अत: उन्होंने शिव से प्रार्थना की। तब शिव ने देवताओं के दुख दूर करने का निश्चय किया और वे चल दिए। परंतु श्रीकृष्ण कवच और तुलसी के पतिव्रत धर्म की वजह से शिवजी भी उसका वध करने में सफल नहीं हो पा रहे थे तब विष्णु से ब्राह्मण रूप बनाकर दैत्यराज से उसका श्रीकृष्ण कवच दान में ले लिया और शंखचूड का रूप धारण कर तुलसी के शील का अपहरण कर लिया। अब शिव ने शंखचूड को अपने त्रिशूल से भस्म कर दिया और उसकी हड्डियों से शंख का जन्म हुआ। चूंकि शंखचूड विष्णु भक्त था अत: लक्ष्मी-विष्णु को शंख का जल अति प्रिय है और सभी देवताओं को शंख से जल चढ़ाने का विधान है। परंतु शिव ने चूंकि उसका वध किया था अत: शंख का जल शिव को निषेध बताया गया है। इसी वजह से शिवजी को शंख से जल नहीं चढ़ाया जाता है।


प्राचीन काल से ही प्रत्येक घर में पूजा-वेदी पर शंख की स्थापना की जाती है। निर्दोष एवं पवित्र शंख को दीपावली, होली, महाशिवरात्रि, नवरात्र, रवि-पुष्य, गुरु-पुष्य नक्षत्र आदि शुभ मुहूर्त में विशिष्ट कर्मकांड के साथ स्थापित किया जाता है। रुद्र, गणेश, भगवती, विष्णु भगवान आदि के अभिषेक के समान शंख का भी गंगाजल, दूध, घी, शहद, गुड़, पंचद्रव्य आदि से अभिषेक किया जाता है। इसका धूप, दीप, नैवेद्य से नित्य पूजन करना चाहिए और लाल वस्त्र के आसन में स्थापित करना चाहिए।


शंखराज सबसे पहले वास्तु-दोष दूर करते हैं। मान्यता है कि शंख में कपिला (लाल) गाय का दूध भरकर भवन में छिड़काव करने से वास्तुदोष दूर होते हैं। परिवार के सदस्यों द्वारा आचमन करने से असाध्य रोग एवं दुःख-दुर्भाग्य दूर होते हैं। विष्णु शंख को दुकान, ऑफिस, फैक्टरी आदि में स्थापित करने पर वहाँ के वास्तु-दोष दूर होते हैं तथा व्यवसाय आदि में लाभ होता है। शंख की स्थापना से घर में लक्ष्मी का वास होता है।


स्वयं माता लक्ष्मी कहती हैं कि शंख उनका सहोदर भ्राता है। शंख, जहाँ पर होगा, वहाँ वे भी होंगी। देव प्रतिमा के चरणों में शंख रखा जाता है। पूजास्थली पर दक्षिणावृत्ति शंख की स्थापना करने एवं पूजा-आराधना करने से माता लक्ष्मी का चिरस्थायी वास होता है। इस शंख की स्थापना के लिए नर-मादा शंख का जोड़ा होना चाहिए। गणेश शंख में जल भरकर प्रतिदिन गर्भवती नारी को सेवन कराने से संतान गूंगेपन, बहरेपन एवं पीलिया आदि रोगों से मुक्त होती है। अन्नपूर्णा शंख की व्यापारी व सामान्य वर्ग द्वारा अन्नभंडार में स्थापना करने से अन्न, धन, लक्ष्मी, वैभव की उपलब्धि होती है। मणिपुष्पक एवं पांचजन्य शंख की स्थापना से भी वास्तु-दोषों का निराकरण होता है। शंख का तांत्रिक-साधना में भी उपयोग किया जाता है। इसके लिए लघु शंखमाला का प्रयोग करने से शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है।


आइये जानें शंख बजाने और इसके इस्तेमाल के फायदे:-




शंख का महत्त्व धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, वैज्ञानिक रूप से भी है। वैज्ञानिकों का मानना है कि शंख-ध्वनि के प्रभाव में सूर्य की किरणें बाधक होती हैं। अतः प्रातः व सायंकाल में जब सूर्य की किरणें निस्तेज होती हैं, तभी शंख-ध्वनि करने का विधान है। इससे आसपास का वातावरण तता पर्यावरण शुद्ध रहता है। आयुर्वेद के अनुसार शंखोदक भस्म से पेट की बीमारियाँ, पीलिया, कास प्लीहा यकृत, पथरी आदि रोग ठीक होते हैं।


तंत्र शास्त्र के अनुसार सीधे हाथ की तरफ खुलने वाले शंख को यदि पूर्ण विधि-विधान के साथ करके इस शंख को लाल कपड़े में लपेटकर अपने घर में अलग- अलग स्थान पर रखने से विभिन्न परेशानियों का हल हो सकता है। दक्षिणावर्ती शंख को तिज़ोरी मे रखा जाए तो घर में सुख-समृद्धि बढ़ती है। इसलिए घर में शंख रखा जाना शुभ माना जाता है।


लक्ष्मी के हाथ में जो शंख होता है वो दक्षिणावर्ती अर्थात सीधे हाथ की तरफ खुलने वाले होते हैं। वामावर्ती शंख को जहां विष्णु का स्वरुप माना जाता है और दक्षिणावर्ती शंख को लक्ष्मी का स्वरुप माना जाता है। दक्षिणावृत्त शंख घर में होने पर लक्ष्मी का घर में वास रहता है।


वर्तमान समय में वास्तु-दोष के निवारण के लिए जिन चीज़ों का प्रयोग किया जाता है, उनमें से यदि शंख आदि का उपयोग किया जाए तो कई प्रकार के लाभ हो सकते हैं। यह न केवल वास्तु-दोषों को दूर करता है, बल्कि आरोग्य वृद्धि, आयुष्य प्राप्ति, लक्ष्मी प्राप्ति, पुत्र प्राप्ति, पितृ-दोष शांति, विवाह में विलंब जैसे अनेक दोषों का निराकरण एवं निवारण भी करता है।


मान्यता है कि छोटे-छोटे बच्चों के शरीर पर छोटे-छोटे शंख बाँधने तथा शंख में जल भरकर अभिमंत्रित करके पिलाने से वाणी-दोष नहीं रहता है। बच्चा स्वस्थ रहता है। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि मूक एवं श्वास रोगी हमेशा शंख बजायें तो बोलने की शक्ति पा सकते हैं।


शंख के जल से शालीग्राम को स्नान कराएं और फिर उस जल को यदि गर्भवती स्त्री को पिलाया जाए तो पैदा होने वाला शिशु पूरी तरह स्वस्थ होता है। साथ ही बच्चा कभी मूक या हकला नहीं होता। यदि कोई बोलने में असमर्थ है या उसे हकलेपन का दोष है तो शंख बजाने से ये दोष दूर होते हैं। शंख बजाने से कई तरह के फेफड़ों के रोग दूर होते हैं जैसे दमा, कास प्लीहा यकृत और इन्फ्लून्जा आदि रोगों में शंख ध्वनि फायदा पहुंचाती है। रूक-रूक कर बोलने व हकलाने वाले यदि नित्य शंख-जल का पान करें, तो उन्हें आश्चर्यजनक लाभ मिलेगा। दरअसल मूकता व हकलापन दूर करने के लिए शंख-जल एक महौषधि है।


शंखों में भी विशेष शंख जिसे दक्षिणावर्ती शंख कहते हैं इस शंख में दूध भरकर शालीग्राम का अभिषेक करें। फिर इस दूध को निरूसंतान महिला को पिलाएं। इससे उसे शीघ्र ही संतान का सुख मिलता है।


1928 में बर्लिन यूनिवर्सिटी ने शंख ध्वनि का अनुसंधान करके यह सिद्ध किया कि इसकी ध्वनि कीटाणुओं को नष्ट करने कि उत्तम औषधि है।


माना जाता है कि पूजा-पाठ में शंख बजाने से शरीर और आसपास का वातावरण शुद्घ होता है और सतोगुण की वृद्घि होती है, जो मनुष्य के विकास में सहायक होता है।


जहां तक शंख की आवाज जाती है, इसे सुनकर लोगों के मन में सकारात्मक विचार पैदा होते हैं और वे पूजा-अर्चना के लिए प्रेरित होते हैं। ऐसी मान्यता है कि शंख की पूजा से हमारी कामनाएं पूरी होती हैं।


चूंकि माता लक्ष्मी और भगवान विष्णु, दोनों ही अपने हाथों में शंख को धारण करते हैं, लिहाजा शंख को बेहद शुभ माना जाता है। साथ ही ऐसी मान्यता है कि जिस घर में शंख होता है, वहां लक्ष्मी का वास होता है और दिनोंदिन उन्नति होती है।


शंख बजाने से फेफड़े का व्यायाम होता है और स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। खासतौर पर श्वास के रोगी के लिए यह बेहद असरदार माना गया है। आयुर्वेद के अनुसार शंख बजाने से दमा, यकृत और इन्फ़्लुएन्ज़ा जैसी बीमारियां भी दूर होती हैं।


पूजा के समय शंख में जल भरकर देवस्थान में रखने और उस जल से पूजन सामग्री धोने और घर के आस-पास छिड़कने से वातावरण शुद्ध रहता है। क्योकि शंख के जल में कीटाणुओं को नष्ट करने की अद्भूत शक्ति होती है। साथ ही शंख में रखा पानी पीना स्वास्थ्य और हमारी हड्डियों, दांतों के लिए बहुत लाभदायक है। शंख में गंधक, फास्फोरस और कैल्शियम जैसे उपयोगी पदार्थ मौजूद होते हैं। इससे इसमें मौजूद जल सुवासित और रोगाणु रहित हो जाता है। इसीलिए शास्त्रों में इसे महाऔषधि माना जाता है।


शंख में जल रखने और इसे छिड़कने से वातावरण शुद्ध होता है। शंख में कैल्श‍ियम और फॉस्फोरस के गुण मौजूद होते हैं। लिहाजा शंख में रखे पानी के सेवन से हड्डियां मजबूत होती हैं।


प्रयोग के लिए कुछ दिन के लिए शंख को घर में लाये और उपरोक्त नियम-अनुसार लाभ प्राप्त करे .


उपचार और प्रयोग -

सहजन के स्वास्थ लाभ -

सहजन से तो आप भलि-भाति परिचित होगें। यह एक ऐसी हरी सब्‍जी है जो बाजार में चारों ओर बिकती है पर हम में ऐसे बहुत से लोग हैं तो इस सब्‍जी को देख कर भी अनदेखा कर देते हैं। सहजन की सब्‍जी ही नहीं बल्‍कि इसके पेड़ के विभिन्‍न भाग के अनेको प्रयोग पुराने जमाने से ही किये जा रहे हैं-






सहजन के बीज से तेल निकाला जाता है और छाल पत्ती, गोंद, जड़ आदि से आयुर्वेदिक दवाएं तैयार की जाती हैं। सहजन कई बीमारियों को दूर करती है और शरीर के हर अंग को मजबूती भी देती है क्‍योंकि इसमें बहुत सारे पोषक तत्‍व भरे हुए हैं।



सहजन (ड्रमस्टिक्स) या मुनगा जड़ से लेकर फूल और पत्तियों तक सेहत का खजाना है। सहजन के ताजे फूल और गाय का दूध ऐसा हर्बल टॉनिक है जिससे पुरुषों की मर्दाना कमजोरी और महिलाओं में सेक्स की कमजोरी दूर होती है। 


सहजन की छाल का पावडर रोज लेने से वीर्य की गुणवत्ता में सुधार होता है तथा पुरुषों में शीघ्रपतन की समस्या भी दूर होती  है। छाल का पावडर, शहद और पानी से ऐसा मिश्रण तैयार होता है जो शीघ्रपतन की समस्या का अचूक इलाज है।

मुनगा या सहजन या ड्रम स्टिक्स की करीब 50 ग्राम पत्तियों को लेकर चटनी बनाए जाए तो यह पेट के कृमियों को बाहर निकाल फेंकने में काफी कारगर होती है। चटनी बनाने के लिए पत्तियों को बारीक कुचल लिया जाए, इसमें स्वादानुसार नमक और मिर्च पाउडर भी मिला लिया जाए और इस पूरे मिश्रण को तवे या कढाही पर आधा चम्मच तेल डालकर कुछ देर भून लिया जाए। सप्ताह में एक या दो बार इस चटनी का सेवन बेहद गुणकारी होता है।

सहजन की पत्तियों का सूप टीबी, ब्रोंकाइटिस तथा अस्थमा पर नियंत्रण के लिए कारगर समझा जाता है। इसका स्वाद बढ़ाने के लिए नींबू का रस, कालीमिर्च और सेंधा नमक मिलाया जा सकता है। 


सहजन में हाई मात्रा में ओलिक एसिड होता है जो कि एक प्रकार का मोनोसैच्‍युरेटेड फैट है और यह शरीर के लिये अति आवश्‍यक है।

सहजन में विटामिन सी की मात्रा बहुत होती है। विटामिन सी शीर के कई रोगों से लड़ता है, खासतौर पर सर्दी जुखाम से। अगर सर्दी की वजह से नाक कान बंद हो चुके हैं तो, आप सहजन को पानी में उबाल कर उस पानी का भाप लें। इससे जकड़न कम होगी।

यह हाजमें के लिए सबसे मुफीद सब्जी मानी जाती है। 

ताजी पत्तियों को निचो़ड़कर निकाले गए रस को एक चम्मच शहद तथा एक गिलास नारियल के पानी के साथ लेना चाहिए। इससे कॉलरा, डायरिया, डीसेंट्री, पीलिया तथा कोलाइटिस की समस्या में आराम मिलता है। 


अगर पेशाब में अधिक मात्रा में यूरिया जा रहा हो तो मरीज को सहजन की ताजी पत्तियों के निचोड़े हुए रस के साथ खीरा या गाजर के रस के मिलाकर पिला दें। इससे तत्काल आराम मिलता है।

सहजन की ताजा पत्तियों के निचोड़े हुए रस के साथ नींबू के रस से
मुंहासों का कारगर इलाज किया जाता है। इससे ब्लेक स्पॉट्स हटते हैं साथ ही उम्र के कारण थकी और कांति हीन त्वचा में नई जान फूंकी जा सकती है। इसी के साथ ही सहजन के फूलों के साथ पत्तियां, सहजन के बीज और जड़ से शरीर में हुई गठानों का इलाज किया जा सकता है।




जड़ रूखी और स्वाद में कड़वी होती है लेकिन फेफड़ों के लिए बढ़िया
टॉनिक के रूप में काम करती है। यह कफ को बाहर निकालती है। 

मूत्रवर्धक होने से मूत्र संबंधी विकारों का निवारण भी करती है। 

इसमें कैल्‍शियम की मात्रा अधिक होती है जिससे हड्डियां मजबूत बनती है। इसके अलावा इसमें आइरन, मैग्‍नीशियम और सीलियम होता है।

पुराने समय से ही सजहन का प्रयोग यौन शक्‍ति को बढाने के लिये किया जा रहा है। ऐसा इसलिये क्‍योंकि इसमें जिंक होता है जो स्‍पर्म बढाता है।

जड़ों से तैयार किए गए रस से त्वचा के कई रोगों में राहत मिलती है।

सहजन की पत्‍तियों के साथ ही सजहन का फल भी बी कामप्‍लेक्‍स से भरा होता है। इसमें बहुत सारा विटामिन जैसे, विटामिन बी6, नियासिन, राइबोफ्लेविन और फॉलिक एसिड होता है।

सहजन में विटामिन ए होता है जो कि पुराने समय से ही सौंदर्य के लिये प्रयोग किया आता जा रहा है। अगर आप इस हरी सब्‍जी को अक्‍सर अपने खाने में शामिल करेंगी तो आप कभी बूढी नहीं होंगी। इससे आंखों की रौशनी भी अच्‍छी होती है।

आप सहजन को सूप के रूप में पी सकती हैं, इससे शरीर का रक्‍त साफ होता है। पिंपल जैसी समस्‍याएं तभी सही होंगी जब आपका खून अंदर से साफ होगा।

सहजन के छाल में शहद मिलाकर पीने से वातए व कफ रोग शांत हो जाते है, इसकी पत्ती का काढ़ा बनाकर पीने से गठिया, शियाटिका ,पक्षाघात,वायु विकार में शीघ्र लाभ पहुंचता है, शियाटिका के तीव्र वेग में इसकी जड़ का काढ़ा तीव्र गति से चमत्कारी प्रभाव दिखता है.

सहजन को अस्सी प्रकार के दर्द व बहत्तर प्रकार के वायु विकारों का शमन करने वाला बताया गया है। 

सहजन की सब्जी खाने से पुराने गठिया और  जोड़ों के दर्द व्  वायु संचय , वात रोगों में लाभ होता है। 

सहजन के ताज़े पत्तों का रस कान में डालने से दर्द ठीक हो जाता है। 

सहजन की सब्जी खाने से गुर्दे और मूत्राशय की पथरी कटकर निकल जाती है। 

सहजन की जड़ की छाल का काढा सेंधा नमक और हिंग डालकर पीने से पित्ताशय की पथरी में लाभ होता है। 

सहजन के पत्तों का रस बच्चों के पेट के कीड़े निकालता है और उलटी दस्त भी रोकता है। 

सहजन फली का रस सुबह शाम पीने से उच्च रक्तचाप में लाभ होता है। 

सहजन की पत्तियों के रस के सेवन से मोटापा धीरे धीरे कम होने लगता है। 

सहजन. की छाल के काढ़े से कुल्ला करने पर दांतों के कीड़ें नष्ट होते है और दर्द में आराम मिलता है। 

सहजन के कोमल पत्तों का साग खाने से कब्ज दूर होती है। 

सहजन. की जड़ का काढे को सेंधा नमक और हींग  के साथ पिने से मिर्गी के दौरों में लाभ होता है। 

सहजन की पत्तियों को पीसकर लगाने से घाव और सुजन ठीक होते है। 

सहजन के पत्तों को पीसकर गर्म कर सिर में लेप लगाए या इसके बीज घीसकर सूंघे तो सर दर्द दूर हो जाता है .

सहजन के गोंद को जोड़ों के दर्द और शहद को दमा आदि रोगों में लाभदायक माना जाता है।



सहजन में विटामिन सी की मात्रा बहुत होती है। विटामिन सी शरीर के कई रोगों से लड़ता है खासतौर पर सर्दी जुखाम से। अगर सर्दी की वजह से नाक कान बंद हो चुके हैं तोए आप सहजन को पानी में उबाल कर उस पानी का भाप लें। इससे जकड़न कम होगी।


सहजन में कैल्शियम की मात्रा अधिक होती है जिससे हड्डियां मजबूत बनती है। इसके अलावा इसमें आयरन , मैग्नीशियम और सीलियम होता है।

सहजन के बीजों का तेल शिशुओं की मालिश के लिए प्रयोग किया जाता है। त्वचा साफ करने के लिए सहजन के बीजों का सत्व कॉस्मेटिक उद्योगों में बेहद लोकप्रिय है। सत्व के जरिए त्वचा की गहराई में छिपे विषैले तत्व बाहर निकाले जा सकते हैं।


सहजन के बीजों का पेस्ट त्वचा के रंग और टोन को साफ रखने में मदद करता है।मृत त्वचा के पुनर्जीवन के लिए इससे बेहतर कोई रसायन नहीं है। धूम्रपान के धुएँ और भारी धातुओं के विषैले प्रभावों को दूर करने में सहजन के बीजों के सत्व का प्रयोग सफल साबित हुआ है-

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