Tuesday, October 27, 2015

किसी भी घाव को भर देता है ये सत्यानासी का पौधा -

सत्यानाशी ऐसा नाम है जिसे सुन के ही अजीब लगता है फिर भला यदि सत्यानाशी किसी पौधे का नाम हो तो कौन इसे अपने घर मे लगायेगा-



वनस्पतियो के मूल नाम विशेषकर अंग्रेजी नाम अच्छे होते है पर स्थानीय नाम उनके असली गुणो (दुर्गुण कहे तो ज्यादा ठीक होगा) के बारे मे बता देते है। इसी प्रकार मार्निंग ग्लोरी के अंग्रेजी नाम से पहचाना जाने वाला पौधा अपने दुर्गुणो के कारण बेशरम या बेहया के स्थानीय नाम से जाना जाता है।

सु-बबूल की भी यही कहानी है। यह अपने तेजी से फैलने और फिर स्थापित होकर समस्या पैदा करने के अवगुण के कारण कु-बबूल के रुप मे जाना जाता था।वैज्ञानिको को पता नही कैसे यह जँच गया। उन्होने इसका नाम बदलकर सु-बबूल रख दिया और किसानो के लिये इसे उपयोगी बताते हुये वे इसका प्रचार-प्रसार करने मे जुट गये। कुछ किसान उनके चक्कर मे आ गये। जब उन्होने इसे लगाया तो जल्दी ही वे समझ गये कि इसका नाम कु-बबूल क्यो रखा गया था। अब लोग फिर से इसे कु-बबूल के रुप मे जानते है। वैसे अंग्रेजी नाम भी कई बार वनस्पतियो की पोल खोल देते है। जैसे बायोडीजल के रुप मे प्रचारित जैट्रोफा को ही ले। जिस तेल से बायोडीजल बनाया जाना है उसे ही ब्रिटेन मे हेल आइल (नरकीय तेल) का नाम मिला है। यूँ ही यह नाम नही रखा गया है। वहाँ के लोग लम्बे समय से जानते है कि इस तेल मे कैसर पैदा करने वाले रसायन होते है। इसलिये उन्होने इसे यह गन्दा नाम दे दिया है।

अब हम सत्यानाशी पर आते है। यह वनस्पति आम तौर पर बेकार जमीन मे उगती है। इसमे काँटे होते है और इसे अच्छी नजर से नही देखा जाता है। घर के आस-पास यदि यह दिख जाये तो लोग इसे उखाडना पसन्द करते है। गाँव के ओझा जब विशेष तरह का भूत उतारते है तो इसके काँटो से प्रभावित महिला की पिटाई की जाती है। बहुत बार इस पर लेटा कर भी प्रभावित की परीक्षा ली जाती है। तंत्र साधना मे भी इसका प्रयोग होता है। आम तौर पर ऐसी वनस्पतियो से लोग दूरी बनाये रखते है। सत्यानाशी से सम्बन्धित दसो किस्म के विश्वास और अन्ध-विश्वास देश के अलग-लग कोनो मे अलग-अलग रुपो मे उपस्थित है। आम लोग जहाँ इसे अशुभ मानते है वही चतुर व्यापारी इससे लाभ कमाते है-

सरसो के तेल मे मिलावट और इसके कारण होने वाले ड्राप्सी रोग के विषय मे तो समय-समय पर पढा ही होगा। दरअसल मिलावट तेल मे नही होती है। मिलावट होती है बीजो मे। और सरसो के साथ ऐसे बीज मिलाये जाते है जो बिल्कुल उसी की तरह दिखते हो। भारत मे सबसे अधिक मिलावट सत्यानाशी के बीजो की होती है। व्यापारी बडे भोलेपन से यह कह देते है कि यह मिलावट हम नही करते है। यह खेतो मे अपने-आप हो जाती है। सरसो के खेतो मे सत्यानाशी के पौधे बतौर खरप्तवार उगते है। दोनो ही एक ही समय पर पकते है। इस तरह खेत मे ही वे मिल जाते है। वे यह भी कहते है कि सरसो को उखाड कर जब खलिहान मे लाते है तो सत्यानाशी के पौधे भी साथ मे आ जाते है। यह एक सफेद झूठ है। सत्यानाशी का पौधा सरसो के खेतो मे नही उगता है। जबकि ये यह बेकार जमीन की वनस्पति है-

आज के सरसो तेल मे वो बात नही है तो आप खीझ उठते है। पर यह कटु सत्य है कि सरसो के तेल मे सत्यानाशी की मिलावट होती है जो कि आपको सीधे नुकसान करती है।व्यापारी लोग बताते है  कि ऐसी मिलावट से सरसो के तेल की सनसनाहट बढ जाती है। आजकल लोग यही देखकर तेल खरीदते है। इसलिये इस तरह की मिलावट करनी होती है-

इसका वैज्ञानिक नाम आर्जिमोन मेक्सिकाना यह इशारा करे कि यह मेक्सिको का पौधा है पर प्राचीन भारतीय चिकित्सा ग्रंथो मे इसके औषधीय गुणो का विस्तार से वर्णन मिलता है। इसका संस्कृत नाम स्वर्णक्षीरी सत्यानाशी की तरह बिल्कुल भी नही डराता है। यह नाम तो स्वर्ग से उतरी किसी वनस्पति का लगता है। यह बडे की अचरज की बात है कि सत्यानाशी के बीज जिस रोग को पैदा करते है उसकी चिकित्सा सत्यानाशी की पत्तियो और जडो से की जाती है। आज भी देश के पारम्परिक चिकित्सक सत्यानाशी के बीजो के दुष्प्रभाव हो ऐसे ही उपचारित करते है-

जबकि आयुर्वेदिक ग्रंथ 'भावप्रकाश निघण्टु' में इस वनस्पति को स्वर्णक्षीरी या कटुपर्णी जैसे सुंदर नामों से सम्बोधित किया गया है। इसके विभिन्न भाषाओ में नाम है -

संस्कृत- स्वर्णक्षीरी, कटुपर्णी।

हिन्दी- सत्यानाशी, भड़भांड़, चोक।

मराठी- कांटेधोत्रा।

गुजराती- दारुड़ी।

बंगाली- चोक, शियालकांटा।

तेलुगू- इट्टूरि।

तमिल- कुडियोट्टि।

कन्नड़- दत्तूरि।

मलयालम- पोन्नुम्माट्टम।

इंग्लिश- मेक्सिकन पॉपी।

लैटिन- आर्जिमोन मेक्सिकाना।

यह कांटों से भरा हुआ, लगभग 2-3 फीट ऊंचा और वर्षाकाल तथा शीतकाल में पोखरों, तलैयों और खाइयों के किनारे लगा पाया जाने वाला पौधा होता है। इसका फूल पीला और पांच-सात पंखुड़ी वाला होता है। इसके बीज राई जैसे और संख्या में अनेक होते हैं। इसके पत्तों व फूलों से पीले रंग का दूध निकलता है, इसलिए इसे 'स्वर्णक्षीरी' यानी सुनहरे रंग के दूध वाली कहते हैं।

इसकी जड़, बीज, दूध और तेल को उपयोग में लिया जाता है। इसका प्रमुख योग 'स्वर्णक्षीरी तेल' के नाम से बनाया जाता है। यह तेल सत्यानाशी के पंचांग (सम्पूर्ण पौधे) से ही बनाया जाता है। इस तेल की यह विशेषता है कि यह किसी भी प्रकार के व्रण (घाव) को भरकर ठीक कर देता है।

व्रणकुठार तेल बनाये :-



निर्माण विधि :-


आप इस पौधे को सावधानीपूर्वक कांटों से बचाव करते हुए, जड़ समेत उखाड़ लाएं। इसे पानी में धोकर साफ करके कुचल कर इसका रस निकाल लें। फिर जितना रस हो, उससे चौथाई भाग अच्छा शुद्ध सरसों का तेल मिला लें और मंदी आंच पर रखकर पकाएं। जब रस जल जाए, सिर्फ तेल बचे तब उतारकर ठंडा कर लें और शीशी में भर लें। यह व्रणकुठार तेल है। जेसे अगर 200 ग्राम रस है तो 50 ग्राम ही शुद्ध घानी का सरसों का तेल डाले और पक के वापस 50 ग्राम तेल बचे तो रख ले -

प्रयोग विधि : -


किसी भी प्रकार के जख्म (घाव) को नीम के पानी से धोकर साफ कर लें। साफ रूई को तेल में डुबोकर तेल घाव पर लगाएं। यदि घाव बड़ा हो, बहुत पुराना हो तो रूई को घाव पर रखकर पट्टी बांध दें। कुछ दिनों में घाव भर कर ठीक हो जाएगा।ये घाव ठीक करने की अचूक दवा है अगर पुराना नासूर है तो भी ये दवा उतनी ही कारगर है-

उपचार और प्रयोग-

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