Friday, October 16, 2015

भले ही क्यों न गर्दन में स्लिप डिस्क हो जाए - Why not even let slip disc in neck

ज्यो-ज्यो हम किसी चीज के अभ्यस्त होते जाते है त्यों-त्यों वो चीज मंहगी होती जाती है ये बिजनेस का नियम है अम्बानी ग्रुप ने दुनियां मुट्ठी में कराने का कहा था- तभी मुझे लगने लगा था कि हम मुट्ठी में हो जायेगे और आज सच सामने है हर व्यक्ति मोबाइल का आदी बन गया है एक मोबाइल की जगह दो-दो मोबाइल रखने का क्रेज बढ़ गया है-

भले ही क्यों न गर्दन में स्लिप डिस्क हो जाए - Why not even let slip disc in neck



अब इससे दुरी बनाना भी ऐसा हो गया है- जेसे बीबी घर से मायके जाने की बात करे और उससे हम उससे ये कहे - "हम तुम्हारे बिना नहीं जी सकते है...!"


हमेशा  हर चीज के फायदे और लाभ दोनों है- आज परिवेश बदल गया पहले मुझे याद है हर हाथ में फ़ोकट में डाटा पैक उपलब्ध कराया गया कि पहले नेट चलाने का अभ्यास तो करो और फिर लोगो की  आदत बनी और आदत अब नशे में परिवर्तित हुआ - ठीक उसी तरह जब अग्रेजो के जमाने में पहले जगह-जगह चाय के स्टाल लगा के लोगो को मुफ़्त पिलाई जाती थी - अब आलम ये है पैदा होने वाले नवजात को भी दूध नहीं "चाय में टेस्ट नजर आता है"-ये लत हमारी जब कमजोरी बन जाती है-तभी हम ब्लैकमेल का शिकार होते है- नेट डाटा पैक की आदत आज इतना भयावह रूप ले चुकी है कि एक समय भोजन न मिले चलेगा पर फोन में बेलेंस या नेट पैक न हो ये अब नहीं हजम होने वाला -

 "रोग से ग्रसित होने पे दवाई खाना एक बार भूल जाए ये भी चलेगा- पर नेट न चलाये ये अब संभव नहीं"

दिनों दिन नेट पेक के रेट बढे जो अनलिमिटेड थी GB  में आई अब GB कम करने में लगी है सभी कम्पनियां अब MB  देने पे आ गए है -मुझे उम्मीद है कुछ दिनों बाद उतने पैसे में ही अब KB डाटा ही  मिलेगा  और जिनकी आदत में शुमार हो गया है उनका -भगवान् ही भला करेगा ...

लेकिन इसके फायदे भी अनेक है और दुष्परिणाम भी है- ये हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हमारा रुझान केसा है- मान लो मुझे राजनीत में अगर इन्ट्रेस्ट है तो आप राजनीत से सम्बंधित सभी सर्च करेगे उसी तरह की पसंद को लाइक करेगे दिल ने कहा तो शेयर भी करेगे उसी तरह का पेज या ग्रुप ज्वाइन भी करेगे यानी कोई भी मित्र आपकी प्रोफाइल या टाइम लाइन चेक करके यदि आपके साथ जुड़ने का लगाव रखता है तो रिक्वेस्ट भेजेगा- और इसी तरह लोगो की च्वाइस की एक केटेगरी बन जाती है- अच्छी बातो का पता भी चलता है और लोग जागरुक भी होते जाते है सोसल साइट का आज एक अपना इतना महत्व पूर्ण योगदान युवा वर्ग के लिए हो गया कि देश को बदलने में भी अहम योगदान है..

दुष्परिणाम भी कम नहीं है और इसकी संख्या में भी काफी इजाफा हुआ है - कहते है कि "भक्ति" के लिए लोग मुश्किल से इम्प्रेस होते है लेकिन " पब "जाना हो तो समय ही समय है...

कॉलेज व दफ्तर जाने वाले युवाओं की दिनचर्या व्यस्त हो गई है। दिन भर दफ्तर में रहने के बावजूद शाम होते ही वे घर पर भी फेसबुक चलाने लगते हैं। जिससे न केवल उनका परिवार परेशान रहता है, अपितु वे रोजमर्रा के जरूरी काम भी नहीं कर पाते। वहीं छोटी उम्र के बच्चे भी फेसबुक पर व्यस्त होने से अपनी पढ़ाई पर सही ध्यान नहीं दे पाते।

जो वक्त उन्हें अपनी पढ़ाई में लगाना चाहिए, उसकी जगह वे फेसबुक पर लड़कियों से फ्लर्ट करते नजर आते हैं। बच्चों व युवाओं द्वारा फेसबुक पर ज्यादा देर तक समय बिताने से समाज में विकृति पैदा हो रही है, जिससे न केवल उनका स्वयं का नुकसान हो रहा है, अपितु वे अपने परिवारों से दूर होते जा रहे हैं।

कॉलेज कैंपस या फिर घर की चहारदीवारी, हाथों में मोबाइल व लैपटॉप पकड़कर हर कोई अपने दोस्तों से चैट करता नजर आता है। थ्री जी टेक्नोलॉजी व हाई- स्पीड ब्रॉडबैंड के इस युग में हर कोई ऑनलाइन रहना पसंद करता है।

युवा मानते हैं कि किस फ्रेंड्स के कौन-से कमेंट कब आ जाएं, इसके लिए फेसबुक पर हर समय ऑनलाइन रहते हैं। बच्चे व युवा खासतौर से फेसबुक पर ऑनलाइन रहना पसंद करते हैं। लेकिन अभिभावकों की जिम्मेदारी है कि वे अपने बच्चों को फेसबुक का सीमित उपयोग ही करने दें.

युवाओं पर तो फेसबुक का भूत इस कदर चढ़ गया है कि अब वे अपना हर दुख-दर्द व खुशी अपने फेसबुक फ्रेंड से शेयर कर रहे हैं। इससे न केवल उनकी पढ़ाई अपितु सामाजिक जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ रहा है। जो बच्चे व युवा अभी तक सिर्फ पढ़ाई व अपने सहपाठियों को तवज्जो देते थे। वे अब फेसबुक पर ही दोस्ती करना पसंद कर रहे हैं।

पोर्न साइट की बाढ़ से तो हमारा युवा वर्ग इतना प्रभावित हो गया है कि सब कुछ छोड़ के लगा पड़ा है भले ही क्यों न गर्दन में स्लिप डिस्क हो जाए- कुछ तो मर्दांगनी से परेशान है लेकिन उसके घातक परिणाम उसे जब तक मिलने शुरु होते है तब तक " तोता उसके हाथ से उड़ चुका होता है" और थोडा आनंद उसे उस गर्त में डुबो चुका होता है जहाँ से निकलना आसान नहीं होता है..

हमारे पूर्वज मुर्ख नहीं हुआ करते थे- मगर आज की ग्लैमर की दुनियां में जीने वाले खुद को मुर्ख नहीं अपने पूर्वज को महामूर्ख समझने की जो धारणा बना बेठे है वो उनके स्वयं के लिए ही घातक बनती जा रही है- बीमारियो का स्तर क्यों बढ़ा और कैसे बढ़ा ये शोध नहीं समझदारी का विषय है-

एक तो ये मंहगाई की मार है और मिलावट खोरो ने तो हमारी जिंदगी में एक धीमा जहर घोलना शुरु किया है लेकिन वो ये भूल जाते है इसके प्रभाव में उनकी खुद की वंशावली भी है जो बोयेंगे उनको भी वही काटना है "धन की लोलुपता चंद भोग -विलास दे सकती है स्थाई सुख नहीं" अगर कफ़न में जेब लगती तो सोच भी लेता लेकिन अच्छा है कि ये परम्परा ही नहीं बनी है वर्ना क़त्ल हो जाते धन के लिए.!

शरीर को सुदृढ़ सुंदर और मजबूत और स्थाई बनाने की रुचि कम है नेट से दूर होंगे जब तब न सोचेगे " ये नहीं उद्देश्य बिलकुल नहीं है कि नेट के ज्ञान से दूर हो जाए मगर एक सीमित समय के लिए उपयोगिता ठीक है"

लेकिन आज की आपाधापी में जीने वालो को इतनी फुर्सत कहाँ है कि वे सोच सके.!

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