Tuesday, January 27, 2015

किले में वीर की एक लात से बन गया तालाब, महाभारत काल में हुआ निर्माण.....!

पूरी दुनिया को अपनी ओर आकर्षित करने वाला राजस्थान खुद में कई रोचक तथ्य छुपाए हुए है। यहां पर बने किलों का इतिहास हजारों साल पुराना है। माना जाता है कि महाभारत के पात्र भीम ने यहां करीब 5000 वर्ष पूर्व एक किले का निर्माण करवाया था। उसका नाम था 'चित्तौड़गढ़ का किला'। समुद्र तल से 1338 फीट ऊंचाई पर स्थित 500 फीट ऊंची एक विशाल आकार में, पहाड़ी पर निर्मित यह किला लगभग 3 मील लंबा और आधे मील तक चौड़ा है। 

चित्तौड़गढ़ का किला भारत के सभी किलों में सबसे बड़ा माना जाता है। यह 700 एकड़ में फैला हुआ है। माना जाता है कि पांडव के दूसरे भाई भीम जब संपत्ति की खोज में निकले तो रास्ते में उनकी एक योगी से मुलाकात हुई। उस योगी से भीम ने पारस पत्थर मांगा। इसके बदले में योगी ने एक ऐसे किले की मांग की जिसका निर्माण रातों-रात हुआ हो।

भीम ने अपने बल और भाइयों की सहायता से किले का काम लगभग समाप्त कर ही दिया था, सिर्फ थोड़ा-सा कार्य शेष था। इतना देख योगी के मन में कपट उत्पन्न हो गया। उसने जल्दी सवेरा करने के लिए यति से मुर्गे की आवाज में बांग देने को कहा। जिससे भीम सवेरा समझकर निर्माण कार्य बंद कर दे और उसे पारस पत्थर नहीं देना पड़े। मुर्गे की बांग सुनते ही भीम को क्रोध आया और उसने क्रोध से अपनी एक लात जमीन पर दे मारी। जहां भीम ने लात मारी वहां एक बड़ा सा जलाशय बन गया। आज इसे 'भीमलात' के नाम से जाना जाता है।


चित्तौड़गढ़ का किला भारत के सभी किलों में सबसे बड़ा माना जाता है। यह 700 एकड़ में फैला हुआ है। यह किला 3 मील लंबा और आधे मील तक चौड़ा है। किले के पहाड़ी का घेरा करीब 8 मील का है। इसके चारो तरफ खड़े चट्टान और पहाड़ थे। साथ ही साथ दुर्ग में प्रवेश करने के लिए लगातार सात दरवाजे कुछ अन्तराल पर बनाए गये थे। इन सब कारणों से किले में प्रवेश कर पाना शत्रुओं के लिए बेहद मुश्किल था।



निकट ही महावीर स्वामी का मन्दिर है। इस मंदिर का जीर्णोद्धार महाराणा कुम्भा के राज्यकाल में ओसवाल महाजन गुणराज ने करवाया थ। हाल ही में जीर्ण-शीर्ण अवस्था प्राप्त इस मंदिर का जीर्णोद्धार पुरातत्व विभाग ने किया है। इस मंदिर में कोई प्रतिमा नहीं है। आगे महादेव का मंदिर आता है। मंदिर में शिवलिंग है तथा उसके पीछे दीवार पर महादेव की विशाल त्रिमूर्ति है, जो देखने में समीधेश्वर मंदिर की प्रतिमा से मिलती है। कहा जाता है कि महादेव की इस विशाल मूर्ति को पाण्डव भीम अपने बाजूओं में बांधे रखते थे। 


यह स्तम्भ वास्तुकला की दृष्टि से अपने आप अनुठा है। इसके प्रत्येक मंजिल पर झरोखा होने से इसके भीतरी भाग में भी प्रकाश रहता है। इसमें भगवानों के विभिन्न रुपों और रामायण तथा महाभारत के पात्रों की सैकड़ों मूर्तियां खुदी हैं। कीर्तिस्तम्भ के ऊपरी मंजिल से दुर्ग एवं निकटवर्ती क्षेत्रों का विहंगम दृश्य दिखता है। बिजली गिरने से एक बार इसके ऊपर की छत्री टूट गई थी, जिसकी महाराणा स्वरुप सिंह ने मरम्मत करायी।





किले के अंत में दीवार के 150 फीट नीचे एक छोटी-सी पहाड़ी (मिट्टी का टीला) दिखाई पड़ती है। यह टीला कृत्रिम है और कहा जाता है कि अकबर ने जब चित्तौड़ पर आक्रमण किया था, तब अधिक उपयुक्त मोर्चा इसी स्थान को माना और उस मगरी पर मिट्टी डलवा कर उसे ऊंचा उठवाया, ताकि किले पर आक्रमण कर सके। प्रत्येक मजदूर को प्रत्येक मिट्टी की टोकरी हेतु एक-एक मोहर दी गई थी।




इस किले में नदी के जल प्रवाह के लिए दस मेहरावें बनी हैं, जिसमें नौ के ऊपर के सिरे नुकीले हैं। यह दुर्ग का प्रथम प्रवेश द्वार है। कहा जाता है कि एक बार भीषण युद्ध में खून की नदी बह निकलने से एक पाड़ा (भैंसा) बहता-बहता यहां तक आ गया था। इसी कारण इस द्वार को पाडन पोल कहा जाता है।
पाडन पोल से थोड़ा उत्तर की तरफ चलने पर दूसरा दरवाजा आता है, जिसे भैरव पोल के रुप में जाना जाता है।

दुर्ग के तृतीय प्रवेश द्वार को हनुमान पोल कहा जाता है। क्योंकि पास ही हनुमान जी का मंदिर है। हनुमान जी की प्रतिमा चमत्कारिक एवं दर्शनीय हैं। हनुमान पोल से कुछ आगे बढ़कर दक्षिण की ओर मुड़ने पर गणेश पोल आता है, जो दुर्ग का चौथा द्वार है। इसके पास ही गणपति जी का मंदिर है। यह दुर्ग का पांचवां द्वार है और छठे द्वार के बिल्कुल पास होने के कारण इसे जोड़ला पोल कहा जाता है। दुर्ग के इस छठे द्वार के पास ही एक छोटा सा लक्ष्मण जी का मंदिर है जिसके कारण इसका नाम लक्ष्मण पोल है। लक्ष्मण पोल से आगे बढ़ने पर एक पश्चिमाभिमुख प्रवेश द्वार मिलता है, जिससे होकर किले के अन्दर प्रवेश कर सकते हैं। यह दरवाजा किला का सातवां तथा अन्तिम प्रवेश द्वार है। इस दरवाजे के बाद चढ़ाई समाप्त हो जाती है।
आभार -देनिक भास्कर 

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